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________________ परिशिष्ट ७ : ज्ञानमीमांसा २४६ तृतीय भूमिका नन्दीसूत्रगत ज्ञानचर्चा में व्यक्त होती है। वह इस प्रकार है ज्ञान १. आभिनिबोधिक २. श्रुत ३. अवधि ४. मनःपर्यव ५. केवल १. प्रत्यक्ष २. परोक्ष १. आभिनिबोधिक २. श्रुत १. इन्द्रियप्रत्यक्ष १. श्रोत्रेन्द्रिय प्र० २. चक्षुरिन्द्रिय प्र० ३. घ्राणेन्द्रिय प्र० ४. जिहन्द्रियप्र० ५. स्पर्शनेपन्द्रियप्र० २. नोइन्द्रियप्रत्यक्ष १. अवधि २. मन:पर्यव ३. केवल १. श्रुतनिःसृत २. अश्रुतनिःसृत १. अवग्रह २. ईहा ३. अवाय ४. धारणा १. औत्पत्तिकी २. वनयिकी ३. कर्मजा ४. पारिणामिकी १. व्यञ्जनावग्रह २. अर्थावग्रह अंकित नक्शे को देखने से स्पष्ट हो जाता है कि सर्वप्रथम इसमें ज्ञानों को पांच भेद में विभक्त कर संक्षेप में उन्हीं को प्रत्यक्ष और परोक्ष ऐसे दो भेदों में विभक्त किया गया है । स्थानांग से विशेषता यह है कि इसमें इन्द्रियजन्य पांच मतिज्ञानों का स्थान प्रत्यक्ष और परोक्ष उभय में है क्योंकि जैनेतर सभी दर्शनों ने इन्द्रियजन्य ज्ञानों को परोक्ष नहीं, किन्तु प्रत्यक्ष माना है, उनको प्रत्यक्ष में स्थान देकर उस लौकिक मत का समन्वय करना भी नन्दीकार को अभिप्रेत था। आचार्य जिनभद्र ने इस समन्वय को लक्ष्य में रखकर ही स्पष्टीकरण किया है कि वस्तुतः इन्द्रियज प्रत्यक्ष को सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष कहना चाहिए। अर्थात् लोकव्यवहार के अनुरोध से ही इन्द्रियज मति को प्रत्यक्ष कहा गया है। वस्तुतः वह परोक्ष ही है क्योंकि प्रत्यक्ष कोटि में परमार्थत: आत्म-मात्र सापेक्ष ऐसे अवधि, मन:पर्यव और केवल ये तीन ही हैं। अत: इस भूमिका में ज्ञानों का प्रत्यक्ष-परोक्षत्व व्यवहार इस प्रकार स्थिर हुआ १. अवधि, मनःपर्यव और केवल पारमार्थिक प्रत्यक्ष है। २. श्रुत परोक्ष ही है। ३. इन्द्रियजन्य मतिज्ञान पारमार्थिक दृष्टि से परोक्ष है और व्यावहारिक दृष्टि से प्रत्यक्ष है। ४. मनोजन्य मतिज्ञान परोक्ष ही है।। आचार्य अकलंक ने तथा तदनुसारी अन्य जैनाचार्यों ने प्रत्यक्ष के सांव्यावहारिक और पारमार्थिक ऐसे जो दो भेद किए हैं सो उनकी नयी सूझ नहीं है। किन्तु उसका मूल नन्दीसूत्र और उसके जिनभद्रकृत स्पष्टीकरण में है।' ज्ञान-चर्चा का प्रमाण-चर्चा से स्वातन्त्र्य ___पंच ज्ञानचर्चा के क्रमिक विकास की उक्त तीनों आगमिक भूमिकाओं की एक खास विशेषता यह रही है कि इनमें ज्ञानचर्चा के साथ इतर दर्शनों में प्रसिद्ध प्रमाणचर्चा का कोई सम्बन्ध या समन्वय स्थापित नहीं किया गया है। इन ज्ञानों में ही सम्यक्त्व और मिथ्यात्व के भेद के द्वारा जैनागमिकों ने वही प्रयोजन सिद्ध किया है जो दूसरों ने प्रमाण और अप्रमाण के विभाग के द्वारा सिद्ध १. "एगन्तेण परोक्खं लिगियमोहाइयं च पच्चक्खं । इन्दियमणोभवं जं तं संववहारपच्चक्खं ।" विशेषा. ९५ और इसकी स्वोपज्ञवृति । Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003616
Book TitleAgam 31 Chulika 01 Nandi Sutra Nandi Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_nandisutra
File Size9 MB
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