________________
परिशिष्ट ७:ज्ञानमीमांसा
२४७
सूत्रकार ने आगे का वर्णन राजप्रश्नीय से पूर्ण कर लेने की सूचना दी है, और राजप्रश्नीय सूत्र (१६५) को देखने पर मालूम होता है, कि उसमें पूर्वोक्त नक्शे में सूचित कथन के अलावा अवग्रह के दो भेदों का कथन करके शेष की पूर्ति नन्दीसूत्र से कर लेने की सूचना दी है।
सार यही है कि शेष वर्णन नन्दी के अनुसार होते हुये भी अन्तर यह है कि इस भूमिका में नन्दीसूत्र के प्रारम्भ में कथित प्रत्यक्ष और परोक्ष भेदों का जिक्र नहीं हैं । और दूसरी बात यह भी है कि नन्दी की तरह इसमें आभिनिबोध के श्रुतनिःसृत और अश्रुतनिःसृत ऐसे दो भेदों को भी स्थान नहीं है । इसी से कहा जा सकता है, कि यह वर्णन प्राचीन भूमिका का है ।
२. स्थानांग-गत ज्ञान-चर्चा द्वितीय भूमिका की प्रतिनिधि है। उसमें ज्ञान को प्रत्यक्ष और परोक्ष ऐसे दो भेदों में विभक्त करके उन्हीं दो में पंच ज्ञानों की योजना की गई है।
इस नक्शे से यह स्पष्ट है कि ज्ञान के मुख्य दो भेद किए गये हैं, पांच नहीं । पांच ज्ञानों को तो उन दो भेद प्रत्यक्ष और परोक्ष के प्रभेद रूप से गिना है । वह स्पष्ट ही प्राथमिक भूमिका का विकास है।
ज्ञान (सूत्र ७१)
१. प्रत्यक्ष
२. परोक्ष
___. आभिनियोधिक
१. केवल
२. नोकेवल
१. आभिनिबोधिक
र अज्ञान
२
तज्ञान
१. अवधि
२. मनःपर्यव
१. श्रुतनिःसृत
२. अश्रुतनिःसृत
१. भवप्रत्ययिक २. क्षायोपशमिक १. ऋजुमति २. विपुलमति १. अर्थावग्रह २. व्यञ्जनावग्रह
१. अर्थावग्रह
२. व्यञ्जनावग्रह
१. अंगप्रविष्ट १२
२. अंगबाह्य
१. आवश्यक
२. आवश्यकव्यतिरिक्त
१. कालिक
२. उत्कालिक इस भूमिका के आधार पर उमास्वाति ने भी प्रमाणों को प्रत्यक्ष और परोक्ष में विभक्त करके उन्हीं दो में पंच ज्ञानों का समावेश किया है।
बाद में होने वाले जनताकिकों ने प्रत्यक्ष के दो भेद बताए हैं-विकल और सकल ।' केवल का अर्थ होता है सर्व-सकल और नोकेवल का अर्थ होता है, असर्व-विकल । अतएव तार्किकों के उक्त वर्गीकरण का मूल्य स्थानांग जितना तो पुराना मानना ही चाहिए।
यहां पर एक बात और भी ध्यान देने के योग्य है। स्थानांग में श्रुतनिःसृत के भेदरूप से व्यञ्जनावग्रह और अर्थावग्रह ये दो बताये हैं । वस्तुतः वहां इस प्रकार कहना प्राप्त था
१. प्रमाणन०२.२०।
ducation Intemational
For Private & Personal Use Only
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org