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________________ परिशिष्ट ७ ज्ञानमीमांसा ज्ञान के स्रोत १. इन्द्रियां २. आत्मा परोक्ष ज्ञान के दो स्रोत ज्ञेय १. आभिनिबोधिकज्ञान' २. श्रुतज्ञान* ज्ञेय के चार प्रकार हैं-द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव । ज्ञान और ज्ञेय का संबंध अक्खरग्गहणेण णाणस्स गहणं कतं, गाणं च णेयाओ अव्वतिरिक्तं, कहं ?, जाव जाणियव्वा भावा ताव णाणं, अतो एतिसि णणणेयाणं परिमाणं इमं भण्णति, तं जहा - सव्वागासपदेसग्गं अनंतगुणितं पज्जवग्गं अक्खरं लब्भति, तत्थ सव्वसद्दो णिरवसेसिए अत्थे वट्ट, आगासं पसिद्धं चेव, तस्स जं पएसग्गं, अग्गंति वा परिमाणंति वा पमाणंति वा एगट्ठा, तेण चैव सब्वागासपदेसग्गेण अनंतगुणितं पज्जवग्गं अक्खरं लब्भति, पज्जायाणं च एगमेगस्स आगासपदेसस्स जावइया अगुरुलहुपज्जाया तेसि संपिडियाणं जं अग्गं एवं परिमाणं रस्सत्ति, पाणपमानंति वृत्तं भवति । चैतन्यशक्तेर्द्वावकारी ज्ञानाकारो ज्ञेयाकारश्च । अनुपयुक्तप्रतिबिम्बाकारादर्शतलवत् ज्ञानाकार:, प्रतिबिम्बावारपरिणतादर्शतलवत् ज्ञेयाकारः । तत्र ज्ञेयाकारः स्वात्मा, तन्मूलत्वाद् घटव्यवहारस्य । ज्ञानाकारः परात्मा, सर्वसाधारणत्वात् । स घटो ज्ञेयाकारेणास्ति नान्यथा । यदि ज्ञेयाकारेणाप्यघटः स्यात्; तदाश्रयेतिकर्तव्यतानिरासः स्यात् । अथ हि ज्ञानाकारेणापि घटः स्यात्; पटादिज्ञानाकारकालेऽपि तत्सन्निधानाद् घटव्यवहारवृत्तिः प्रसज्येत।" [पं० दलसुखभाई मालवणिया ने 'आगम युग का जैन दर्शन' में ज्ञान मीमांसा का जो प्रकरण लिखा है, वह यहां अविकल रूप से उद्धृत है । ] ज्ञान चर्चा को जैन दृष्टि जैन आगमों में अद्वैतवादियों की तरह जगत् को वस्तु और अवस्तु -- माया में तो विभक्त नहीं किया है, किन्तु संसार की प्रत्येक वस्तु में स्वभाव और विभाव सन्निहित है, यह प्रतिपादित किया है। वस्तु का परानपेक्ष जो रूप है, वह स्वभाव है, जैसे आत्मा का चैतन्य, ज्ञान, सुख आदि, और पुद्गल की जड़ता । किसी भी काल में आत्मा ज्ञान या चेतना रहित नहीं और पुद्गल में जड़ता भी त्रिकालाबाधित है। वस्तु का जो पर सापेक्ष रूप है, वह विभाव है, जैसे आत्मा का मनुष्यत्व, देवत्व आदि और पुद्गल का शरीर रूप परिणाम । मनुष्य को हम न तो कोरा आत्मा ही कह सकते हैं और न कोरा पुद्गल ही । इसी तरह शरीर भी केवल पुद्गल नहीं कहा जा सकता । आत्मा का मनुष्य रूप होना पर सापेक्ष है और पुद्गल का शरीर रूप होना भी पर सापेक्ष है । अतः आत्मा का मनुष्य रूप और पुद्गल का शरीर रूप ये दोनों क्रमशः आत्मा और पुद्गल के विभाव हैं । स्वभाव ही सत्य है और विभाव मिथ्या है, जैनों ने कभी यह प्रतिपादित नहीं किया। क्योंकि उनके मत में त्रिकालाबाधित वस्तु ही सत्य है, ऐसा एकांत नहीं । प्रत्येक वस्तु चाहे वह अपने स्वभाव में ही स्थित हो, विभाव में स्थित हो सत्य है । हां, तद्विषयक हमारा ज्ञान मिथ्या हो सकता है, लेकिन वह भी तब, जब हम स्वभाव को विभाव समझें या विभाव को स्वभाव । तत् में अतत् का ज्ञान होने पर ही ज्ञान में मिथ्यात्व की संभावना रहती है । विज्ञानवादी बौद्धों ने प्रत्यक्ष ज्ञान को वस्तुग्राहक और साक्षात्कारात्मक तथा इतर ज्ञानों को अवस्तुग्राहक, भ्रामक, अस्पष्ट और असाक्षात्कारात्मक माना है। जैनागमों में इन्द्रिय निरपेक्ष एवं केवल आत्म सापेक्ष ज्ञान को ही साक्षात्कारात्मक प्रत्यक्ष कहा गया है, और इन्द्रिय सापेक्ष ज्ञानों को असाक्षात्कारात्मक और परोक्ष माना गया है। जैनदृष्टि से प्रत्यक्ष ही वस्तु के स्वभाव और विभाव का साक्षात्कार कर सकता है, और वस्तु का विभाव से पृथक् जो स्वभाव है, उसका स्पष्ट पता लगा सकता है । इन्द्रिय १. नंदी, सू. ५ २. वही, सू. ६ से ३३ ३. वही, सू. ३७ से ५४ ४. वही, सू. ५५ से १२७ Jain Education International २४५ ५. वही, सू. २२,२५,३३,५४,१२७ ६. आवश्यक चूणि, पृ. २९ ७. तत्त्वार्थवात्तिक १, पृ. ३४ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003616
Book TitleAgam 31 Chulika 01 Nandi Sutra Nandi Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_nandisutra
File Size9 MB
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