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भूमिका
१५ देवद्धिगणी की आगम वाचना से पूर्व प्रस्तुत सूत्र की रचना हो चुकी थी। भगवती आदि में उपलब्ध नंदी के उल्लेखों के आधार पर यह कल्पना की जा सकती है, फिर भी एक प्रश्न असमाहित रह जाता है कि भगवती आदि में नंदी सूत्र के उल्लेख स्वयं देवद्धिगणी ने किए अथवा वे उनके उत्तरकाल में किए गए । आगमों के संक्षेपीकरण का उपक्रम कई बार हुआ था । पं० बेचरदास दोशी के अनुसार पाठ संक्षेपीकरण देवद्धिगणी क्षमाश्रमण ने किया था। उन्होंने लिखा है-देवद्धिगणी क्षमाश्रमण ने आगमों को ग्रंथ बद्ध करते समय कुछ महत्वपूर्ण बातें ध्यान में रखीं। जहां-जहां शास्त्रों में समान पाठ आए, वहां-वहां उनकी पुनरावृत्ति न करते हुए उनके लिए एक विशेष ग्रंथ अथवा स्थान का निर्देश कर दिया, जैसे-'जहा उववाइए', 'जहा पण्णवणाए' इत्यादि । एक ग्रंथमें वही बात बार-बार आने पर उसे पुन: न लिखते हुए 'जाव' शब्द का प्रयोग करते हुए उसका अन्तिम शब्द लिख दिया, जैसे'णागकुमारा जाव विहरन्ति', 'तेण कालेणं जाव परिसा णिग्ग या' इत्यादि । इस परम्परा का प्रारंभ भले ही देवद्धिगणी ने किया हो, किन्तु इसका विकास उनके उत्तरवर्ती काल में भी होता रहा है । वर्तमान में उपलब्ध आदर्शों में संक्षेपीकृत पाठ की एकरूपता नहीं
एक आदर्श में कोई सूत्र संक्षिप्त है तो दूसरे में वह समग्र रूप से लिखित है। टीकाकारों ने स्थान स्थान पर इसका उल्लेख भी किया है। उदाहरण के लिए औपपातिक सूत्र में 'अयपायाणि वा जाव अण्णयराई वा' तथा 'अयबंधणाणि वा जाव अण्णयराई वा'--ये दो पाठांश मिलते हैं । वृत्तिकार के सामने जो मुख्य आदर्श थे, उनमें ये दोनों संक्षिप्त रूप में थे किन्तु दूसरे आदर्शों में ये समग्र रूप में भी प्राप्त थे । वृत्तिकार ने इसका उल्लेख किया है । लिपिकर्ता अनेक स्थलों में अपनी सुविधानुसार पूर्वागत पाठ को दूसरी बार नहीं लिखते और उत्तरवर्ती आदर्शों में उनका अनुसरण होता चला जाता, उदाहरण स्वरूप-रायपसेणइय सूत्र में 'सब्बिड्ढीए अकालपरिहीणं' ऐसा पाठ मिलता है । इस पाठ में अपूर्णता सूचक संकेत भी नहीं है। सविड्ढीए और अकालपरिहीण के मध्यवर्ती पाठ की पूर्ति करने पर समग्र पाठ इस प्रकार बनता है-'सब्विड्ढीए सबजुतीए सव्वबलेणं सव्वसमुदएण सव्वादारेणं सव्वविभूईए सव्वविभूसाए सव्वसंभमेणं सव्वपुप्फगंधमल्लालंकारेणं सव्वतुडियंसहसण्णिनाएणं महया इड्ढीए महया जुईए महया बलेणं महया समुदएणं महया वरतुडियजमगसमग-पडुप्पवाइयरवेणं संख-पणव-पडह-भेरि-झल्लरि-खरमुहि-हुडुक्क-मुरय-मुइंग-दुंदुहि-निग्धोसणाइयरवेणं णियगपरिवालसद्धि संपरिवडा साइं-साइं जाणाविमाणाई दुरूढा समाणा अकालपरिहीणं ।' संक्षेपीकरण की प्रक्रिया में अन्य आगमों में नंदीसूत्र के उल्लेख उत्तरवर्ती आचार्यों द्वारा किए गए, इस संभावना को अस्वीकार नहीं किया जा सकता । किन्तु देवद्धिगणी ने आगमों को लिपिबद्ध करते समय संक्षिप्त पाठ की प्रणाली न अपनाई हो यह नहीं कहा जा सकता, इसलिए प्रस्तुत आगम की रचना वाचना के पूर्व हुई, इस स्वीकृति में कोई बाधा प्रतीत नहीं होती।
प्रस्तुत आगम के रचनाकार देववाचक हैं। ये देवद्धिगणी के नाम से अधिक विश्रुत हैं। चूर्णिकार ने नंदीसूत्र के कर्ता के रूप में दूष्यगणी के शिष्य देववाचक का उल्लेख किया है।'
___जगदीशचंद्र जैन ने नंदी के कर्ता दुष्यगणी के शिष्य देववाचक को माना है किन्तु उनके अनुसार देववाचक और देवद्धिगणी क्षमाश्रमण एक व्यक्ति नहीं है ।२
इस पक्ष में एक तर्क उपस्थित होता है कि देववाचक और देवद्धिगणी क्षमाश्रमण एक होते तो चूणिकार ने देवद्धिगणी क्षमाश्रमण का उल्लेख क्यों नहीं किया किन्तु यह तर्क बहुत बलवान नहीं है । वाचक, क्षमाश्रमण, वादी और दिवाकर ये सब एकार्थक माने गए हैं। भद्रेश्वरसूरि की 'कहावलि' में इसका उल्लेख मिलता है
वाई य खमासमणे दिवायरे वायगे ति एगट्ठा ।
पुव्वगयं जस्सेसं जिणागमे तम्मिमे नामा ॥ जिनके पास पूर्वो के अंशों का पारम्परिक ज्ञान होता था उनके लिए क्षमाश्रमण, वाचक आदि का प्रयोग होता था।
कर्मग्रंथकार देवेन्द्रसूरि ने स्वोपज्ञवृत्ति में नंदीसुत्र के पाठ उद्धृत किए हैं। वहां सूत्रकार ने देवद्धिगणी व देववाचक का प्रयोग किया है।
प्रस्तुत आगम की स्थविरावली में क्षमाश्रमण का कहीं भी प्रयोग नहीं है। केवल वाचक और वाचक वंश का प्रयोग मिलता है। इसलिए देववाचक और देवद्धिगणी क्षमाश्रमण दोनों एक व्यक्ति हैं या नहीं, यह संशय प्रस्तुत किया जा सकता है । इस पर विमर्श की संभावना भी है।
देववाचक सौराष्ट्र प्रदेश में जन्मे । उनका गोत्र काश्यप था । मुनि दीक्षा स्वीकार कर आचाराङ्ग आदि अङ्गों तथा दो पूर्वो १. (क) नन्दी चुणि, पृ. १३
(ग) मलयगिरीया वृत्ति, प. २ (ख) हारिभद्रीया वृत्ति, पृ. १७
२. प्राकृत साहित्य का इतिहास, पृ. १८८
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