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________________ १२१ प्र०४, सूत्र ६१-६४, टि०४ तत्त्वार्थ भाष्य में कालिकी संज्ञा के स्थान पर सम्प्रधारण संज्ञा का प्रयोग किया गया है। सम्प्रधारण संज्ञा आलोचनात्मक ज्ञान है।' इंद्रिय का बोध केवल वर्तमान अर्थ का बोध है । कालिकी संज्ञा सर्वार्थग्राही है। इंद्रिय केवल अपने-अपने प्रतिनियत विषय का बोध करती है इसलिए कालिकी संज्ञा इंद्रिय कोटि का ज्ञान नहीं है । यह संज्ञा इंद्रियों के द्वारा गृहीत अर्थों का संकलनात्मक ज्ञान करती है। इस निर्भरता के कारण इसे आंशिक इंद्रिय, नोइंद्रिय और अतीन्द्रिय भी कहा गया है। इस प्रकार जैन साहित्य में मन के लिए कालिकी संज्ञा दीर्घकालिकी संज्ञा, सम्प्रधारण संज्ञा, नोइंद्रिय, अनिन्द्रिय और छठी इंद्रिय' इतने शब्दों का प्रयोग मिलता है। २. हेतूपदेशिकी संज्ञा यह मानसिक चेतना से निम्नस्तर की चेतना का विकास है, कालिकी संज्ञा त्रैकालिक होती है। हेतूपदेशिकी संज्ञा प्रायः वर्तमान कालिक होती है । कहीं-कहीं अतीत और अनागत का चिन्तन भी होता है किन्तु दीर्घकालिक चिन्तन नहीं होता।' हेतुपदेशिकी संज्ञा के विकास में अभिसंधारण --अव्यक्त चिन्तन होता है, इसलिए इस संज्ञा वाले जीव अपनी क्रियात्मक शक्ति में अव्यक्त चिन्तन का प्रयोग करते हैं । वे चिंतनपूर्वक आहार आदि इष्ट विषयों में प्रवृत्त होते हैं और अनिष्ट विषयों से निवृत्त होते हैं। हेतुपदेशिकी संज्ञा के आधार पर जीवों के संज्ञी और असंज्ञी ये दो विभाग किए गए हैं-जिस जीव में अभिसंधारणपूर्वक क्रिया शक्ति होती है, वह हेतूपदेशिकी संज्ञा की दृष्टि से संज्ञी है', जैसे-द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और संमूच्छिम पञ्चेन्द्रिय जीव । जिस जीव में अभिसंधारणपूर्वक क्रिया शक्ति नहीं होती वह हेतूपदेशिकी संज्ञा की दृष्टि से असंज्ञी है। पृथ्वीकायिक आदि एकेन्द्रिय जीवों की चेतना मत्त, मूच्छित और विष परिणत चेतना तुल्य होती है । वे इष्ट के लिए प्रवृत्त और अनिष्ट से निवृत्त होने में समर्थ नहीं होते। ३. दृष्टिवादोपदेशिको संज्ञा संज्ञी और असंज्ञी का तीसरा वर्गीकरण दृष्टि अथवा दर्शन के आधार पर किया गया है । इसके अनुसार सम्यक्दृष्टि जीव १. तत्त्वार्थाधिगमसूत्रम्, २।२५ का भाष्य : सम्प्रधारणसंज्ञायां संज्ञिनो जीवाः समनस्का भवन्ति । सर्वे नारकदेवा गर्भव्युत्क्रान्तयश्च मनुष्यास्तिर्यग्योनिजाश्च केचित् । ईहापोहयुक्ता गुणदोषविचारणात्मिका सम्प्रधारणसंज्ञा । तां प्रति संजिनो विवक्षिताः । अन्यथा ह्याहार-भय-मैथुन संज्ञाभिः सर्व एव जीवाः संजिन इति । २. तत्त्वार्थभाष्यानुसारिणी, पृ. १७२ : अनिन्द्रियं मनोऽभिधीयते रूपग्रहणादावस्वतन्त्रत्वादसम्पूर्णत्वादनुवरकन्यावत्, इन्द्रियकार्याकरणाद्वाप्यपुत्रव्यपदेशवत् । ३. (क) नन्दी चूर्णि, पृ. ४६ : जहा चक्खुमतो पदीवादिप्प गासेण फुडा रूवोवलद्धी भवति तहा मण खयोवसमलद्धिमतो मणोदश्वपगासेण मणोछर्केहि इंदिएहि फुडमत्थं उवलभतीत्यर्थः। (ख) तत्त्वार्थभाष्यानुसारिणी, पृ. १७६ : यथा च रूपोप लब्धिश्चक्षुष्मतः प्रदीपादिप्रकाशपृष्ठेन तद्वत् क्षयोपशमलब्धिमतो मनोद्रव्यप्रकाशपृष्ठेन मनःषष्ठरिन्द्रिय रोपलब्धिः। ४. (क) विशेषावश्यक भाष्य, गा. ५१६: पाएण संपए च्चिय कालम्मिन याइदोहकालण्णा। ते हेउवायसण्णी निच्चेट्ठा होंति अस्सण्णी ॥ (ख) नन्दी चूणि, पृ० ४७ (ग) हारिभद्रीया वृत्ति, पृ. ६१ (घ) मलयगिरीया वृत्ति, प० १९० ५. (क) विशेषावश्यक भाष्य, गा. ५१५ : जे पुण संचितेउं इट्ठा- णिठेसु विसयवत्थूसु । वटेंति निवटेति य सदेहपरिपालणाहेउ। (ख) नन्दी चूणि, पृ. ४७ : तच्च अभिसंधारणं संचित्य संचित्य इद्रुसु विसयवत्थूसु आहारादिसु प्रवर्तते, अणिठेसु य णियत्तंते । एवं सदेहपरिपालणहेतो पवत्तंति। (ग) हारिभद्रीया वृत्ति, पृ. ६१ (घ) मलयगिरीया वृत्ति, प. १९०, १९१ ६. (क) नन्दी चूणि, पृ० ४७ । (ख) हारिभद्रीया वृत्ति, पृ. ६१: अभिसन्धारणम् अव्यक्तेन विज्ञानेनाऽऽलोचनं तत्पूविका-तत्कारणिका करणशक्तिः-क्रियाशक्तिः। ७. नन्दी चूणि, पृ. ४७ : ते विकलेंदिया सम्मुच्छिमपंचेंदिया या हेतुवायसण्णी भणिता, ते पडुच्च असण्णी जे णिच्चेट्ठा इट्ठा-ऽणि?विसयविणियट्ठवावारा मत-मुच्छिय-विसोवयुतादिसारिच्छचेतणद्विता पुढवादिएगिदिया। Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003616
Book TitleAgam 31 Chulika 01 Nandi Sutra Nandi Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_nandisutra
File Size9 MB
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