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भूमिका
ज्ञान मीमांसा जैन दर्शन का एक स्वतंत्र विषय है। बौद्ध, नैयायिक, वैशेषिक आदि दर्शनों में प्रमाण मीमांसा का महत्वपूर्ण स्थान है। उनमें ज्ञान मीमांसा का स्वतंत्र स्थान नहीं है। जैन दर्शन में दार्शनिक युग से पूर्व ज्ञान मीमांसा का प्राधान्य रहा । प्रमाण मीमांसा का विकास दार्शनिक युग में हुआ
नाम बोध
प्रस्तुत आगम का नाम नन्दी है । नन्दी शब्द का अर्थ है आनन्द । चूर्णिकार ने इसके तीन अर्थ किए हैं- प्रमोद, हर्ष और कन्दर्प ।' ज्ञान सबसे बड़ा आनन्द है । प्रस्तुत आगम में ज्ञान का वर्णन है, इसलिए इसका नाम नन्दी रखा गया है । विशेषावश्यक भाष्य में वाद्य समुदय को द्रव्य मंगल या द्रव्य नन्दी तथा ज्ञान पंचक को भाव मंगल या भाव नंदी कहा गया है।" ज्ञान सबसे बड़ा मंगल है, इस अवधारणा के आधार पर किया गया नामकरण ज्ञान के मूल्यांकन का वास्तविक दृष्टिकोण है ।
आकार
प्रस्तुत आगम का आकार बहुत छोटा है। यह एक अध्ययन है।' अध्ययन के समूह को स्कन्ध, वर्ग आदि कहा जाता है । आचाराङ्ग, सूत्रकृताङ्ग, ज्ञातधर्मकथा, प्रश्नव्याकरण और विपाक इनके श्रुतस्कन्ध हैं। अन्तकृतदशा, अनुत्तरोपपातिकदशा और ज्ञातधर्मकथा के दूसरे श्रुतस्कन्ध में वर्ग हैं । दश अध्ययनों के समूह को दशा कहा जाता है, जैसे—उपासकदशा, अन्तकृतदशा, अनुत्तरोपपातिकदशा । अध्ययन के स्थान में शतक, स्थान, समवाय, प्राभृत, पद, प्रतिपत्ति, वक्षस्कार आदि शब्द भी प्रयुक्त हुए हैं। अध्ययन के उपभाग को उद्देशक कहा जाता है। नंदी में उद्देशक आदि नहीं है अतः वह एक अध्ययन है । चूलिका सूत्र
'
प्रस्तुत सूत्र की आगम सूची में मंदी और अनुयोगद्वार उत्कालिक आगमों की सूची में है वहां मूल और पूलिका सूत्र जैसा कोई वर्गीकरण नहीं है। आचार्य जिनप्रभ ने ई० १३०६ में 'विधिमार्गप्रपा' ग्रंथ लिखा, उसमें आगम स्वाध्याय की उपधान विधि का वर्णन है, वहां नंदी और अनुयोगद्वार का प्रकीर्णक के रूप में उल्लेख है, उन्होंने 'संपयं पइण्णगा' इस वाक्य के साथ सतरह प्रकीर्णक ग्रंथों का उल्लेख किया है-
१. नंदी
२. अनुयोगदाराई
३. देविदत्थव
४. तंदुलवेयालिय
५. मरणसमाहि
६. महापच्चक्खाण
७. आउरपच्चक्खाण
८. संथारय
९. चन्दाविज्य
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पायदुगं जंघोरू गात दुगद्धं तु दो य बाहूयो । गोवा सिरं च पुरियो वारसभंगी सुतविसिद्धो ।'
१. नन्दी चूणि, पृ. १: णंदणं णंदी, गंदंति वा अणयेति णंदी, नंदति वा णंदी, पमोदो हरिसो कंदप्पो इत्यर्थः । २. विशेषावश्यक भाष्य, गा. ७८ :
पुरुष की परिकल्पना का प्राचीन उल्लेख नंदीसूत्र की चूर्णि में मिलता है। चूर्णिकार ने इस प्रसंग में एक प्राचीन गाथा की है
मंगलमधवा णन्दी चतुव्विधा मंगलं व सा णेया । दव्ये तूरसमुदयो भावम्मि य पंच गाणाई ॥
१०. भत्तपरिण्णा
११. चउसरण
१२. वीरत्थय
१३. गणिविज्जा
१४. दीवसागरपण्णत्ति
१५. संगणी
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१६. गच्छायार
१७. सभासा
३. नन्दी चूर्ण, पृ. १
४. नवसुत्ताणि, नंदी, सू. ७७ ५. विधिमार्गप्रपा, पृ. ५७, ५८ ६. नन्दी चूर्ण, पृ. ५७
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