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________________ १०६ नंदो ११. (गाथा ६) प्रस्तुत गाथा में आभिनिबोधिकज्ञान के पर्यायवाची नाम बतलाए गए हैं--- १. ईहा-अन्वयी और व्यतिरेकी दोनों धर्मों के पर्यालोचन की चेष्टा ।' २. अपोह-निश्चय । ३. विमर्श-ईहा और अवाय का मध्यवर्ती प्रत्यय है, जैसे-सिर को खुजलाते हुए देखकर यह प्रत्यय होता है कि खुजलान' पुरुष में घटित होता है, खंभे में नहीं। ४. मार्गणा-अन्वय धर्म की अन्वेषणा।' । ५. गवेषणा व्यतिरेक धर्म का आलोचन ।' ६. संज्ञा-हरिभद्र ने संज्ञा का अर्थ व्यञ्जनावग्रह के उत्तरकाल में होने वाला मति का एक प्रकार किया है । मलयगिरि और मलयात और मलधारी हेमचन्द्र ने भी इसका अनुसरण किया है। जिनभद्रगणि ने विमर्श, मार्गणा, गवेषणा और संज्ञा को ईहा की कोटि में परिगणित किया है। . उमास्वाति ने आभिनिबोधिक ज्ञान के पांच पर्यायवाची नाम बतलाए हैं -मति, स्मृति, संज्ञा, चिन्ता, आभिनिबोधिक । सिद्धसेनगणि ने संज्ञा का अर्थ प्रत्यभिज्ञा किया है।' ७. स्मृति–पूर्वानुभूत अर्थ के आलम्बन से होने वाला प्रत्यय । ८. मति-अर्थ का परिच्छेद होने पर भी सूक्ष्म धर्म का आलोचन करने वाली बुद्धि । ९. प्रज्ञा-वस्तु के अनेक यथार्थ धर्मों का आलोचन करने वाली संवित् । उसकी उपलब्धि मतिज्ञानावरण के विशिष्ट क्षयोपशम से होती है।" १. विशेषावश्यक भाष्य, गा. ३९६ : ईहा अपोह वोमंसा मग्गणा य गवेसणा। सण्णा सई मई पण्णा सव्वं आभिणिबोहियं ॥ २. वही, वृत्ति ३९६ : विमर्शनं विमर्शः आपायात् पूर्व ईहायाश्चोत्तरः 'प्रायः शिरः कण्ड्यनादयः पुरुषधर्मा इह घटन्ते' इति संप्रत्ययः। ३. (क) हारिभद्रीया वृत्ति, पृ. ५८ : अन्वयधर्मान्वेषणा। (ख) मलयगिरीया वृत्ति, प. १८७ ४. (क) हारिभद्रीया वृत्ति, पृ. ५८ : व्यतिरेकधर्मालोचना। (ख) मलयगिरीया वृत्ति, प. १८७ ५. हारिभद्रीया वृत्ति, पृ. ५८ : व्यञ्जनावग्र होत्तरकालभावी मतिविशेषः। ६. मलयगिरीया वृत्ति, प. १८७ ७. विशेषावश्यक भाष्य, गा, ३९७ की वृत्ति : शेषाभिधानानि स्वीहा-विमर्श-मार्गणा-गवेषणा-संज्ञालक्षणानि सर्वाण्यपि ईहा ईहान्त वीनि द्रष्टव्यानीत्यर्थ । ८. तत्त्वार्थाधिगमसूत्रम्, १।१३ : मतिः स्मृतिः संज्ञा चिन्ता ऽभिनिबोध इत्यनान्तरम्। ९. तत्त्वार्थभाष्यानुसारिणी, पृ. ७८ : संज्ञाज्ञानं नाम यत्तरे वेन्द्रियरनुभूतमर्थ प्राकपुनर्विलोक्य स एवायं यमहमद्राक्ष पूर्वाह्न इति संज्ञाज्ञानमेतत् । १०. हारिभद्रीया वृत्ति, पृ. ५८: तथा प्रज्ञानं प्रज्ञा, विशिष्ट क्षयोपशमजन्या प्रभूत वस्तुगतयथावस्थितधर्मालोचनरूपा संविदिति भावना। Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003616
Book TitleAgam 31 Chulika 01 Nandi Sutra Nandi Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_nandisutra
File Size9 MB
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