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________________ प्र० ३, सू० ३६-५३, टि० ५-६ १०१ सूत्र ५१-५३ ६. (सूत्र ५१-५३) सूत्रकार ने व्यञ्जनावग्रह को प्रतिबोधक और मल्लक इन दो दृष्टांतों द्वारा निरूपित किया है। १. प्रतिबोधक दृष्टांत सूप्त पुरुष को जगाने के लिए कोई व्यक्ति संबोधित करता है । संबोधित करने वाले व्यक्ति के शब्द के पुद्गल सुप्त पुरुष के कानों में प्रविष्ट होते हैं । असंख्येय समय से पूर्ववर्ती पुद्गलों को सुप्त व्यक्ति जान नहीं पाता। असंख्येय समय में प्रविष्ट पुद्गल उसके ज्ञान के जनक बनते है, वह जाग जाता है । इसका स्पष्ट अर्थ यह है कि प्रथम समय से लेकर प्रतिसमय प्रविष्ट होने वाले पूदगल असंख्यातवें समय में प्रविष्ट होते हैं तब वे शब्द आदि विज्ञान को उत्पन्न करते हैं।' चणिकार ने असंख्येय समय के प्रमाण का जघन्य और उत्कृष्ट काल इस प्रकार बतलाया है-- जघन्य काल-आवलिका के असंख्येय भाग प्रमाण । उत्कृष्ट काल --संख्येय आवलिका । वह आवलिका का काल आनापान पृथक्त्व के समान होता है। दोनों वृत्तिकारों ने भी उनका अनुसरण किया है।' ___असंख्येय समय में प्रविष्ट पुद्गलों का ज्ञान होता है इसका तात्पर्य हरिभद्रसूरि ने स्पष्ट किया है । चरम समय में प्रविष्ट पुदगल ही ज्ञ न के उत्पादक बनते हैं और शेष प्रविष्ट पुद्गल इन्द्रिय क्षयोपशम के उपकारी हैं इसलिए सबके साथ ग्रहण शब्द का प्रयोग किया गया है। ग्रहण शब्द का प्रयोग ज्ञेय वस्तु और ज्ञान दोनों के अर्थ में होता है । यहा इसका प्रयोग ज्ञान के अर्थ में हुआ है। २. मल्लक दृष्टांत आवा से शराब निकाला। वह गरम शराव एक-एक बूंद डालते-डालते भीग गया और जल से भर गया। इसी प्रकार अनंत पुद्गलों का प्रक्षेप होते-होते जब व्यञ्जन पूर्ण हो जाता है तब श्रोता को शब्द का संबोध होता है। उसके पश्चात् ईहा, अवाय और धारणा की प्रक्रिया चलती है। व्यञ्जन के तीन अर्थ हैं-५ १. शब्द आदि पुद्गल द्रव्य २. द्रव्येन्द्रिय (उपकरणेन्द्रिय) ३. शब्द आदि पुद्गल द्रव्य और द्रव्येन्द्रिय का संबंध । १. नन्दी चूणि, पृ. ३८ : पढमसमयादारम्भ पतिसमयं पविस- ५. नन्दी चूणि, पृ. ४० : एत्थ वंजणग्गहणेण सद्दाइपुग्गलदव्वा माणेसु असंखेज्जइमे समए जे पविट्ठा ते गहणमागच्छंति, ते दग्विदियं वा उभयसम्बन्धो वा घेतव्वं, तिधा वि ण य सद्दादिविण्णाणजणग त्ति कातुं, अतो तेसि गहण विरोधो। वंजणं पूरियं ति कह? उच्यते - जदा पुग्गलबव्वा मुवदिठें। वंजणं तदा पूरियं ति पभूता ते पोग्गलदव्वा जाता, स्वं (ख) द्रष्टव्य, विशेषावश्यक भाष्य, गा. २५०,२५१ प्रमाणमागता सविसयपडिबोधसमत्था जाता इत्यर्थः। जदा २. नन्दी चूणि, पृ. ३८ पुण दविदियं वंजणं तदा पूरियं ति कहं ? उच्यते३. (क) हारिभद्रीया वृत्ति, पृ. ५३ : असंख्येयमानं चात्र जाहे तेहिं पोग्गलेहिं तं दविदियं आवतं भरितं वावितं जघन्यमावलिकाऽसङ्ख्येयभागसमयतुल्यं, उत्कृष्टं तु तदा पूरियं ति भण्णति । जदा तु उभयसम्बन्धो वंजणं तया सङ्ख्येयावलिकासमयतुल्यम, तच्च प्राणापानपृथक्त्वकाल पूरियं ति कहं ? उच्यते-दविदियस्स पुग्गला अंगीभावसमयमिति । उक्तं च-- मागता, पुग्गला य दविदिए अनुषक्ताः, एस उभयभावो, वंजणवग्गहकालो आवलियाऽसंखभागमेत्तो उ। एतम्मि उभयभावे पुग्गलेहिं इंदियं पूरित, इंदिएण वि थोवो, उक्कोसो पुण आणापाणूपुहुत्तं ति ॥ सविसयपडिबोधकप्पमाणाः पुग्गला गहिता, एवं उभयसा(ख) मलयगिरीया वृत्ति, प. १७९ मत्थतो विण्णाणभावो भवतीत्यर्थः। ४. हारिभद्रीया वृत्ति, पृ. ५३ : इह च चरमसमयप्रविष्टा एव ग्रहणमागच्छंति, तदन्ये स्विन्द्रियक्षयोपशमकारिण इत्योघतो ग्रहणमुक्तमिति । Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003616
Book TitleAgam 31 Chulika 01 Nandi Sutra Nandi Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_nandisutra
File Size9 MB
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