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नंदी
३. गवेषणा -- ईहा की तीसरी अवस्था है गवेषणा । इस अवस्था में व्यतिरेक धर्म का परित्याग कर अन्वय धर्म का समालोचन होता है ।"
४. चिता - ईहा की चौथी अवस्था है चिंता । इस अवस्था में अन्वय धर्म से अनुगत अर्थ का बार-बार समालोचन किया जाता है ।"
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५. विमर्श - इसकी पांचवीं अवस्था है विमर्श । इस अवस्था में अर्थ के नित्य अनित्य आदि धर्मों का विमर्श होता है । हरिभद्रसूरि ने इसका मतांतर के रूप में उल्लेख किया है। उन्होंने तथा मलयगिरि ने विमर्श की व्याख्या भिन्न प्रकार से की है जो गवेषणा की व्याख्या से मिलती जुलती है। ईहा की सामान्य भूमिका की दृष्टि से पांचों पद एकार्थक है किंतु अर्थविकल्पना की दृष्टि से पांचों भिन्नार्थक हैं ।" ये ईहात्मक ज्ञान के उत्तरोत्तर विकास को परिलक्षित करते हैं ।
३. अवाय
ईहा की भांति अवायात्मक ज्ञान के उत्तरोत्तर विकास की प्रक्रिया निम्न निर्दिष्ट पांच पदों में संलग्न है । अवाय की सामान्य भूमिका में ये सब एकार्थक हैं और प्रतिपाद्य की भिन्नता की दृष्टि से भिन्नार्थक हैं ।"
१. आवर्तन - अवाय की पहली अवस्था है आवर्त्तन। इस अवस्था में ईहा का कार्य सम्पन्न होने पर अर्थ के स्वरूप का परिछेद होता है।
२. प्रत्यावर्त्तन अवाय की दूसरी अवस्था है प्रत्यावर्तन। इस अवस्था में निर्णीयमान अर्थ के स्वरूप की बार-बार आलोचना होती है । "
३. अपाय - अवाय की तीसरी अवस्था है अपाय । इस अवस्था में ईहा की सर्वथा निवृत्ति हो जाती है और ज्ञेय वस्तु अवधारणा के योग्य बन जाती है ।"
४. बुद्धि- अवाय की चौथी अवस्था है बुद्धि । इस अवस्था में अवधारित अर्थ का स्थिर रूप में स्पष्ट बोध होता है ।"
५. विज्ञान - अवाय की पांचवीं अवस्था है विज्ञान । इस अवस्था में अवधारित अर्थ की विशेष प्रेक्षा और अवधारणा होती है। धारणा तीव्रतर हो जाती है। "
१. (क) नन्दी चूर्ण, पृ० ३६ : तस्सेवsत्थस्स वइरेगधम्मपरिच्चाओ अण्णयधम्मसमा लोगणं च गवसणता भण्णति ।
(ख) हारिमडीयावृत्ति, ०५१
(ग) मलयगिरीवा वृत्ति प. १७०
२. (क) नन्दी चूर्ण, पृ. ३६ : तस्सेव तद्धम्माणुगतत्थस्स पुणो पुणो समालोयणतेण चिंता भण्णति ।
(ख) हारिमा वृत्ति, १.५१
(ग) मलयगिरीया वृत्ति प. १७०
३. (क) नन्दी चूषि, पू. ३६तमेवत्वं मिवाऽणिन्वादिहि
दव्वभावेहिं विमरिसतो वीमंसा भष्णति ।
(ख) हारिभद्रया वृत्ति, पृ. ५१
(ग) मलयगिरीया वृत्ति, प. १७०
४. हारिमदीयावृति पृ. ५१
नित्यानित्यादिव्यमावा
लोचनमित्यन्ये ।
२. नन्दी पूर्णि. पू. ३६ ईहासामणतो एवहिता जेव, अत्य विकपणातो पुण भिण्णत्था ।
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६. वही, पृ. ३६ : ते य अवायसामण्णत्तणतो नियमा एगट्ठिता चेव, अभिधाण भिण्णत्तणतो पुण भिण्णत्था ।
७. (क) नन्दी चूणि, पृ. ३६ : ईहणभावनियत्तस्त अत्यसवव परिदेवमुप्यावंतस्स आउट्टगता
परिबोध भण्णति ।
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(ख) हारिभद्रीया वृत्ति, पृ. ५१
(ग) मलयगिरीया वृत्ति, प. १७६
८. (क) नन्दी चूर्ण, पृ. ३६ : ईहणभावनियट्टस्स वि तमत्यआलोयंत पुणो पुगो पियट्टमं पचाउ भण्णति ।
(ख) हारिभद्रया वृ.ि५१
(ग) मलयगिरीया वृत्ति प. १७६
९. (क) नन्दी चूणि, पृ. ३६: सव्वहा ईहाए अवणयणं कातुं अवधारणावधारितत्थस्स अवधारयतो अवातो ति भण्णति ।
(ख) हारिभद्रया वृत्ति, पृ. ५१
(ग) मलयगिरीया वृत्ति, प. १७६
१०. (क) नन्दी चूणि, पृ. ३६ : पुणो पुणो तमत्थावधारणाव धारितं बुज्झतो बुद्धी भवई ।
(ख) हारिभद्रया वृत्ति, पृ. ५१
(ग) मलयगिरीपा वृत्ति, प १७६
११. (क) नन्दी चूणि, पृ. ३६ : तम्मि चेवावधारितमत्थे विसेसे पेक्खतो अवधारयतो य विष्णाणे त्ति भण्णति ।
(ख) हारिमडीयावृत्ति, पृ. ५२
(ग) मतयविरीया वृत्ति प. १०६
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