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________________ सम्पादकीय नन्दी का मूल पाठ नवसुत्ताणि में प्रकाशित है। प्रस्तुत संस्करण अर्थबोध कराने वाला है। इसमें संस्कृत छाया के अतिरिक्त अनुवाद, टिप्पण, परिशिष्ट आदि की समायोजना है । आचाराङ्ग आदि में जैसे अध्ययन आदि का विभाग है वैसे प्रस्तुत आगम में कोई विभाग नहीं है । अध्ययन की सुविधा की दृष्टि से हमने इसे पांच प्रकरणों में विभक्त किया है। प्रत्येक प्रकरण के पूर्व एक आमुख है। इसके आठ परिशिष्ट हैं। नन्दी का विषय है-ज्ञानमीमांसा । ग्रंथ के प्रारंभ में तीर्थकरावलि, गणधरावलि और वाचनाचार्य पट्टावलि आदि का उल्लेख है। इसमें पञ्चविध ज्ञान का विस्तृत विवेचन है। सहयोगानुभूति जैन परम्परा में वाचना का इतिहास बहुत प्राचीन है। आज से १५०० वर्ष पूर्व तक आगम की पांच वाचनाएं हो चुकी हैं। देवधिगणि के बाद कोई सुनियोजित वाचना नहीं हुई। उनके वाचनाकाल में जो आगम लिखे गए थे, वे इस लम्बी अवधि में बहुत ही अव्यवस्थित हो गए। उनकी पुनर्व्यवस्था के लिए फिर एक सुनियोजित वाचना की अपेक्षा थी। गणाधिपति पूज्य गुरुदेव श्री तुलसी ने सुनियोजित सामूहिक वाचना के लिए प्रयत्न भी किया था, परन्तु वह पूर्ण नहीं हो सका । अन्ततः हम इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि हमारी वाचना अनुसन्धानपूर्ण, तटस्थ दृष्टि से समन्वित तथा सपरिश्रम होगी तो वह अपने आप सामूहिक हो जाएगी । इसी निर्णय के आधार पर हमारा यह आगम वाचना का कार्य प्रारम्भ हुआ। हमारी इस व्यवस्था के प्रमुख गणाधिपति श्री तुलसी हैं। वाचना का अर्थ अध्यापन है । हमारी इस प्रवृत्ति में अध्यापन कर्म के अनेक अंग हैं-पाठ का अनुसन्धान, भाषान्तर, समीक्षात्मक अध्ययन आदि आदि। इन सभी प्रवृत्तियों में गुरुदेव का हमें सक्रिय योग, मार्गदर्शन और प्रोत्साहन प्राप्त है। यही हमारा इस गुरुतर कार्य में प्रवृत्त होने का शक्तिबीज है । विक्रम संवत् २०५२ में हमने नन्दी सूत्र का वाचन शुरू करवाया। अनुयोगद्वार के संपादन का कार्य संपन्न होने के बाद हमने नन्दी के संपादन का कार्य शुरू किया। इस कार्य में साध्वी श्रुतयशा, साध्वी मुदितयशा, साध्वी शुभ्रयशा और साध्वी विश्रुतविभा ने काफी श्रम किया । मुनि हीरालालजी की संलग्नता भी बहुत उपयोगी रही । समणी मंगलप्रज्ञा आदि समणियों की भी समय-समय पर संभागिता रही। इस प्रकार प्रस्तुत ग्रंथ में अनेक साधुओं और साध्वियों का योग रहा है। मैं उन सब साधु-साध्वियों के प्रति सद्भावना व्यक्त करता हूं जिनका इस कार्य में योग है । आशा करता हूं कि वे इस महान कार्य में और अधिक दक्षता प्राप्त करेंगे। आचार्य महाप्रज्ञ २८ अगस्त १९९६ जैन विश्व भारती, लाडनूं Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003616
Book TitleAgam 31 Chulika 01 Nandi Sutra Nandi Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_nandisutra
File Size9 MB
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