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________________ ६२ नंदी १. ज्ञान और अज्ञान दोनों का कारण क्षयोपशम भाव है अत: दोनों में कारण की समानता है। २. ज्ञान और अज्ञान दोनों ही घट आदि पदार्थों का ज्ञान करते हैं इसलिए दोनों में कार्य की समानता है। ३. शब्द आदि इन्द्रिय विषयों को उपलब्ध करने में दोनों की समानता है। समानता की स्थिति में ज्ञान और अज्ञान के भेद का हेतु क्या है ? इस प्रश्न का उत्तर सर्वप्रथम उमास्वाति ने दिया हैमिथ्यादर्शन के कारण अर्थ की उपलब्धि एक नय के आधार पर होती है इसलिए वह सत् और असत् का सम्यक् प्रकार से भेद नहीं कर सकता । उदाहरण स्वरूप द्रव्य उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यात्मक होता है । एकान्त नित्यवाद, एकान्त अनित्यवाद ये सब यदृच्छोपलब्धि के कारण स्वीकृत हैं इसलिए एक नयाधयी ज्ञान अज्ञान कहलाता है।' जिनभद्रगणि ने 'ज्ञानफल का अभाव' इस हेतु की ओर निर्देश किया है। ज्ञान का फल है विरति । मिथ्यादृष्टि के विरति नहीं होती इसलिए उसका ज्ञान अज्ञान कहलाता है। सूत्र ३७ ३. (सूत्र ३७) प्रस्तुत स्त्र में आभिनिबोधिकज्ञान के दो प्रकार बतलाए गए हैं-१. श्रुतनिश्रित २. अथतनिथित । १. श्रुतनिश्रित चर्णिकार ने श्रुत का अर्थ द्वादशाङ्ग किया है । द्वादशाङ्ग द्रव्यश्रुत है। इस द्रव्यश्रत के आधार पर होने वाला मतिज्ञान श्रुतनिश्रित मतिज्ञान कहलाता है। उसके चार प्रकार हैं-१. अवग्रह २. ईहा ३. अवाय ४. धारणा।' हरिभद्र ने चूणि का अनुसरण किया है। उसमें कुछ नया जोड़ा है। उन्होंने श्रुत परिकमित मतिवाला यह विशेषण विशेषावश्यक भाष्य से लिया है। किन्तु उत्पत्ति काल में श्रुत सापेक्ष है यह विचार विशेषावश्यक भाष्य से भिन्न है । जिनभद्रगणि के अनुसार श्रुतनिश्रित मतिज्ञान श्रुतपरिकर्मित मति वाले के होता है। किन्तु वर्तमान काल में वह श्रुतातीत होता है ।" मलयगिरि ने विशेषावश्यक भाष्य का अनुसरण किया है।' हरिभद्र ने वर्तमानकाल में श्रुत सापेक्ष माना है। यदि इसका तात्पर्य संस्कार मात्र हो तो श्रुत सापेक्ष कहने में कोई आपत्ति नहीं हो सकती। श्रुतनिश्रित मति में श्रुत का संस्कार रहा है । श्रुत के परिकर्म से निरपेक्ष होना श्रुतनिश्रित मति में अनिवार्य है। इसलिए उत्पति काल में श्रुतनिश्रित मति को श्रुत परिकर्म सापेक्ष नहीं माना जा सकता। २. अश्रुतनिश्रित जिस आभिनिबोधिकज्ञान की उत्पत्ति में द्रव्यश्रुत व भावश्रुत की अपेक्षा नहीं रहती, वह अश्रुतनिश्रित आभिनिवोधिकज्ञान है। उसके चार प्रकार हैं-१. औत्पत्तिकी २. वैनयिकी ३. कार्मिकी ४. पारिणामिकी ।' हरिभद्र ने श्रुत निरपेक्ष तथाविध क्षयोपशम से उत्पन्न आभिनिबोधिकज्ञान को अश्रुतनिश्रित आभिनिबोधिक ज्ञान कहा है। मलयगिरि के अनुसार शास्त्र के संस्पर्श से मुक्त व्यक्ति के तथाविध क्षयोपशम से जो सहज ज्ञान होता है वह अश्रुतनिश्रित १. तत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् १९३३ : सदसतोरविशेषाद् यदृच्छो पलब्धरुन्मत्तवत् । २. विशेषावश्यक भाष्य, गा. ११५: सद-सदविसेसणाओभवहेउजदिच्छिोवलम्भाओ। नाणफलाभावाओ मिच्छद्दिट्ठिस्स अण्णाणं ॥ ३. नन्दी चूणि, पृ. ३२ : 'सुतनिस्सितं' ति सुतं ति–सुत्तं, तं च सामादियादि बिंदुसारपज्जवसाणं । एतं दध्वसुतं गहितं । तं अणुसरतो जं मतिणाणमुप्पज्जति तं सुतणिस्साए उप्पण्णं ति सुतातो वा णिसृतं तं सुतणिस्सितं भण्णति । तं च उग्गहेहाऽवाय-धारणाठितं चतुभेदं । ४. हारिभद्रीया वृत्ति, पृ. ४६ : श्रुतमिह सामायिकादि लोक बिन्दुतारान्लं द्रव्यश्रुतं गृहाते, तदनुसारेण श्रुतपरिकर्मित मतेस्तदपेक्षमेव चोत्पादकाले यदुत्पद्यते तत् श्रुतनिधितं अवग्रहादि। ५. विशेषावश्यक भाष्य, गा. १६८ : पुवं सुयपरिकम्मियमइस्स जं संपयं सुयाईयं । तं निस्सियमियरं पुण अणिस्सियं मइचउक्कं तं ॥ ६. मलयगिरीया वृत्ति, प. १४४ ७. नन्दी चूणि, पृ. ३२ : 'अस्सुतनिस्सितं च' त्ति जं पुण दव्व-भावसुतणिरवेक्खं आभिणिबोधिकमुप्पज्जति तं असुयभावातो समुप्पण्णं ति असुतनिस्सितं भण्णति । तं च उप्पत्तियादि बुद्धिचउक्क। ८. हारिभद्रीया वृत्ति, पृ. ४६ : यत्पुनस्तदनपेक्ष तथाविधक्षयो पशमप्रभवमेव वर्तते तदश्रुतनिश्रितं औत्पत्तिक्यादि । Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003616
Book TitleAgam 31 Chulika 01 Nandi Sutra Nandi Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_nandisutra
File Size9 MB
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