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महेन्द्रसूरि
जैन श्वेताम्बर गच्छों का संक्षिप्त इतिहास
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पार्श्वदेवगण देवचन्द्रगणि वीरगणि अपरनाम
(पिण्डनिर्युक्तिवृत्ति के लेखन में
सहायक)
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समुद्रघोषसूरि [वि० सं० ११६० /
ई० सन् १९०४ में
पिण्डनिर्युक्तिवृत्ति के रचनाकार ]
सरवालगच्छीय ईश्वरगणि के गुरु कौन थे, क्या ईश्वरगणि के शिष्यों महेन्द्रसूरि, पार्श्वदेवगणि, देवचन्द्रगणि और वीरगणि की शिष्यपरम्परायें आगे चलीं या नहीं, इस सम्बन्ध में साक्ष्यों के अभाव में उत्तर दे पाना संभव नहीं ।
जैसा कि हम पहले देख चुके हैं अभिलेखीय साक्ष्यों से हमें इस गच्छ के केवल दो आचार्यों- वर्धमानाचार्य और जिनेश्वराचार्य के नाम ज्ञात होते हैं, किन्तु पिण्डनिर्युक्तिवृत्ति के प्रशस्तिगत सरवालगच्छीय मुनिजनों से उनका कोई भी संबंध ज्ञात नहीं होता । इससे यह संभावना व्यक्त की जा सकती है कि ये दोनों परम्परायें सरवालगच्छ की दो अलग-अलग शाखाओं का प्रतिनिधित्व करती हैं। इस गच्छ के प्रथम आचार्य कौन थे, ये शाखायें कब अस्तित्व में आयीं, ये सभी प्रश्न इस वक्त तो अनुत्तरित ही रह जाते हैं । वि० सं० की १३वीं शती के पश्चात् तो इस गच्छ से सम्बद्ध प्रमाणों का पूर्णतया अभाव है, अत: यह कहा जा सकता है कि १४वीं शती के प्रारंभ में ही इस गच्छ का अस्तित्व समाप्त हो गया होगा और ऐसी परिस्थिति में इस गच्छ के अनुयायी मुनिजन और श्रावक किन्हीं अन्य गच्छ की सामाचारी का पालन करने लगे होंगे ।
सरवाल जैनों के किसी ज्ञाति का नाम था अथवा किसी नगर या ग्राम विशेष का नाम रहा, जिसके आधार पर इस गच्छ का यह नामकरण हुआ, यह अन्वेषणीय है ।
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