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वायडगच्छ
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अंतिम दो प्रतिमालेखों को छोड़ कर शेष अन्य लेखों में यद्यपि इस गच्छ से सम्बद्ध कोई महत्त्वपूर्ण विवरण ज्ञात नहीं होता फिर भी वे लगभग १५० वर्षों तक इस गच्छ के स्वतंत्र अस्तित्व के प्रबल प्रमाण हैं । वि० सं० १३३८ के लेख से ज्ञात होता है कि इस गच्छ की पूर्व प्रचलित परिपाटी, जिसके अनुसार प्रतिमाप्रतिष्ठा का कार्य श्रावकों द्वारा होता था, को त्याग कर अब स्वयं मुनि या आचार्य द्वारा प्रतिपारित किया जाने । वायडगच्छ का उल्लेख करने वाला अंतिम साक्ष्य इस गच्छ के प्रसिद्ध आचार्य जिनदत्तसूरि के ख्यातिनाम शिष्य प्रसिद्ध ग्रन्थकार अमरचन्द्रसूरि की पाषाण प्रतिमा पर उत्कीर्ण है। मुनि जिनविजयजी ने इस लेख की वाचना दी है३१, जो निम्नानुसार है :
३० लगा
सं० १३४९ चैत्रवदि ६ शनौ श्री वायटीयगच्छे- श्री जिनदत्तसूरि शिष्य पंडित श्री अमरचन्द्रमूर्तिः पं० महेन्द्रशिष्यमदनचंद्रख्या (ख्येन) कारिता शिवमस्तु ॥
इस प्रकार स्पष्ट है कि विक्रम संवत् की चौदहवीं शताब्दी में इस गच्छ के अनुयायियों ने अपने पूर्वगामी आचार्य की प्रतिमा निर्मित कराकर उनके प्रति पूज्यभाव एवं सम्मान व्यक्त किया ।
इस गच्छ के प्रमुख ग्रन्थकारों का विवरण इस प्रकार है : जीवदेवसूरि 'प्रथम'
वायडगच्छ के पुरातन आचार्य जीवदेवसूरि 'परकायप्रवेशविद्या' में निपुण और अपने समय के प्रभावक जैन मुनि थे । इनके गुरु का नाम राशिल्लसूरि और प्रगुरु का नाम जिनदत्तसूरि था । जैसा कि इसी लेख के अन्तर्गत पीछे कहा जा चुका है विभिन्न जैन ग्रन्थकारों धनपाल, लक्ष्मणगणि, उपाध्याय चन्द्रप्रभ, प्रभाचन्द्र, राजशेखर, आदि ने अपनी कृतियों में इनका सादर उल्लेख किया है । इनके द्वारा रचित केवल एक ही कृति आज मिलती है जिसका नाम है जिनस्नात्रविधि ३२ । चन्द्रगच्छीय
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