________________
१२१२
जैन श्वेताम्बर गच्छों का संक्षिप्त इतिहास हुए। छोटे पुत्र महीपाल ने राजगृह (संभवत: वर्तमान राजोरगढ, राजस्थान) के दिगम्बर आचार्य श्रुतकीर्ति से दीक्षा लेकर सुवर्णकीर्ति नाम प्राप्त किया । आगे चलकर सुवर्णकीर्ति ने श्वेताम्बर सम्प्रदाय में अपनी आस्था व्यस्त की और अपने संसारपक्षीय भ्राता राशिल्लसूरि के पास दीक्षित हो कर जीवदेवसूरि के नाम से प्रसिद्ध हुए। निम्बा द्वारा कराये गये जीर्णोद्धार से पूर्व भी उक्त जिनालय जीवदेवसूरि के अधिकार में था । प्रभावकचरित के इसी चरित में आगे लल्ल नामक एक ब्राह्मण धर्मानुयायी श्रेष्ठी का विवरण है जिसने यज्ञ में होनेवाली हिंसा को देखकर जैन धर्म स्वीकार किया और महावीर का एक मन्दिर बनवाया' । इससे नाराज ब्राह्मणों ने वहाँ द्वेषवश रात्रि में एक मृत गाय रख दिया, किन्तु जीवदेवसूरि की चमत्कारिक शक्ति से वह गाय उठी और निकटस्थित ब्रह्मा के मन्दिर में जाकर गिर पड़ी | बाद में दोनों पक्षों में हुए समझौते की शर्तों से स्पष्ट होता है कि इस गच्छ के अनुयायी मुनिजन चैत्यवासी परम्परा से संबद्ध थे ।
. १७
I
.१९
०
अमरचन्द्रसूरि कृत पद्मानंदमहाकाव्य (वि० सं० १२९७ के पूर्व ) की प्रशस्ति" में कुछ परिवर्तन के साथ उक्त कथानक प्राप्त होता है । वहां ब्रह्मा का मंदिर न कहकर ब्रह्मशाला कहा गया है । उन्होंने इस गच्छ के प्रारम्भिक आचार्यों का जो क्रम बतलाया है वह प्रभावकचरित में भी मिलता है। अमरचन्द्रसूरि ने इस सम्बन्ध में महत्त्वपूर्ण बात यह बतलायी है कि वायडगच्छ में पट्टधर आचार्यों को जिनदत्तसूरि, राशिल्लसूरि और जीवदेवसूरि - ये तीन नाम पुनः प्राप्त होते हैं । जब कि यह नियम अमरचन्द्रसूरि के बारे में नहीं लागू हुआ । यद्यपि उनके तीन पूर्ववर्ती आचार्यों का क्रम वैसा ही रहा जैसा कि उन्होंने बतलाया है । अमरचन्द्रसूरि के गुरु का नाम जिनदत्तसूरि था । जिनदत्तसूरि के गुरु का नाम जीवदेवसूरि और प्रगुरु का नाम राशिल्लसूरि था । जिनदत्तसूरि वि० सं० १२६५ / ई० सन् २१ १२०९ में गच्छनायक बने । अरिसिंह द्वारा रचित सुकृतसंकीर्तन (वि० सं० १२८७ / ई० सन् १२३१ लगभग) के अनुसार इन्होंने ई० सन्
२२
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org