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जैन श्वेताम्बर गच्छों का संक्षिप्त इतिहास उक्त अभिलेखों में उल्लिखित शीलभद्रसूरि, भरतेश्वरसूरि और उनके शिष्य वैरस्वामी माणिक्यचन्द्रसूरि द्वारा रचित पार्श्वनाथचरित (रचनाकाल वि० सं० १२७६/ई० सन् १२२०) की प्रशस्ति में उल्लिखित शीलभद्रसूरि, उनके शिष्य भरतेश्वरसूरि तथा उनके पट्टधर वैरस्वामी से निश्चय ही अभिन्न
गिरनार स्थित नेमिनाथ जिनालय के उत्तरी द्वार पर उत्कीर्ण एक खंडित अभिलेख में भी शीलभद्रसूरि के शिष्य श्रीचन्द्रसूरि का उल्लेख मिलता है। प्रो० एम० ए० ढाकी" ने इस लेख को वि० सं० १२०६ या वि० सं० १२१६ का बतलाया है।
राजगच्छ से सम्बद्ध दो लेख वि० सं० की १४ वीं शती के हैं। प्रथम लेख वि० सं० १३२६ का है। बुद्धिसागरसूरि ने इस लेख की वाचना इस प्रकार दी है।
सं० १३२६ वर्षे माघ वदि २ रवौ ठं मलहाकेन पितृयशश्रेयसे श्री आदिनाथबिंबं कारि० श्रीराजगच्छे श्रीमाणिक्यसूरि शिष्य श्रीहेमसूरिभिः
द्वितीय लेख वि० सं० १३९ (?) का है। श्री अगरचन्द नाहटा ने इस लेख की वाचना की है, जो इस प्रकार है:
संवत् १३९ () वैशाख सुदि ३ बुधे प्राग्वाटज्ञातीय महं० ससुपाल श्रेयार्थं महं० कविराजेन श्रीपार्श्व बिंबं कारितं प्रतिष्ठितं राजगच्छीय श्रीमाणिक्यसूरि शिष्य श्रीहेमचन्द्रसूरिभिः ॥
राजगच्छ से सम्बद्ध अगला लेख वि० सं० १४१० का है। बुद्धिसागरसूरि ने इसकी वाचना निम्नानुसार दी है : सं. १४१० वर्ष माघ वदि ६ बुधे .................... मरसीहेन स्वपितुः सा०............
............. ) श्रीशांतिनाथबिंबं कारितं प्रतिष्ठतं श्रीपद (?) मसूरिसंताने श्रीराजगच्छे श्रीहरिभद्रसूरिभिः ॥ वि० सं० १४२० के लेख में भी राजगच्छीय हरिभद्रसूरि का
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