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राजगच्छ का संक्षिप्त इतिहास चन्द्रकुल (बाद में चन्द्रगच्छ) से समय-समय पर अनेक गच्छों का प्रादुर्भाव हुआ । राजगच्छ भी उनमें से एक है। यह गच्छ ११वीं शताब्दी के प्रारम्भ के लगभग अस्तित्व में आया । इस गच्छ में प्रद्युम्नसूरि, अभयदेवसूरि, धनेश्वरसूरि, पार्श्वदेवगणि अपरनाम श्रीचन्द्रसूरि, देवभद्रसूरि, सिद्धसेनसूरि, माणिक्यचन्द्रसूरि, मानतुंगसूरि, प्रभाचन्द्रसूरि आदि प्रखर विद्वान् एवं प्रभावक आचार्य हुए।
राजगच्छ के इतिहास के अध्ययन के लिये साहित्यिक और अभिलेखीय दोनों प्रकार के साक्ष्य उपलब्ध हैं । साहित्यिक साक्ष्यों के अन्तर्गत इस गच्छ के मुनिजनों द्वारा रचित ग्रन्थों की प्रशस्तियों एवं इस गच्छ की एकमात्र उपलब्ध पट्टावली का उल्लेख किया जा सकता है। इनमें ग्रन्थ प्रशस्तियां पट्टावली से प्राचीनतर होने के कारण ज्यादा प्रामाणिक हैं।
ग्रन्थ प्रशस्तियों की भांति इस गच्छ के मुनिजनों द्वारा प्रतिष्ठापित तीर्थङ्कर प्रतिमाओं एवं जिनालयों में उत्कीर्ण अभिलेख भी, जो कि अल्प संख्या में मिले हैं, उतने ही प्रामाणिक हैं । अध्ययन की सुविधा के लिये यहां सर्वप्रथम साहित्यिक साक्ष्यों और तत्पश्चात् अभिलेखीय साक्ष्यों का विवरण प्रस्तुत किया गया है।
राजगच्छीय आचार्यों की प्रमुख रचनाओं की प्रशस्तियों में प्राप्त गुर्वावली का अलग-अलग विवरण इस प्रकार है :
सूक्ष्मार्थविचारसारप्रकरणवृत्ति - राजगच्छीय आचार्य शीलभद्रसूरि के शिष्य धनेश्वरसूरि' (द्वितीय) ने वि० सं० ११७१/ई० सन् १११५ में उक्त कृति की रचना की । इसकी प्रशस्ति में अपनी गुरु-परम्परा का उन्होंने
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