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यशोभद्रसूरिगच्छ
[वि० सं० ११२३ /ई० स० १०६७ में विलासवई के रचनाकार]
प्रीतिसूरि [वि० सं० १२१४ के
अभिलेख में उल्लिखित] विलासवई की प्रशस्ति में चूंकि बप्पभट्टसूरि के पश्चात् यशोभद्रसूरि नाम आया है, अतः यह माना जा सकता है कि उनके बाद ही यशोभद्रसूरि हुए होंगे । बप्पभट्टिसूरि का काल ई० सन् की आठवीं-नवीं शताब्दी सुनिश्चित है, अत: यह कहा जा सकता है कि यशोभद्रसूरि ई० स० की नवीं-दसवीं शती के आसपास हुए होंगे।
इस गच्छ से सम्बद्ध साक्ष्यों की दुर्लभता को दृष्टिगत रखते हुए यह कहा जा सकता है कि चन्द्रकुल से उद्भूत अन्यान्य गच्छों की तुलना में इस गच्छ का प्रभाव तथा प्रचार-प्रसार अत्यन्त सीमित रहा । सिद्धसेनसूरि के पश्चात् और प्रीतिसूरि के पूर्व (लगभग एक सौ वर्षों तक) इस गच्छ में हुए मुनिजनों के नामादि के सम्बन्ध में कोई जानकारी आज उपलब्ध नहीं है। प्रीतिसूरि का भी उल्लेख केवल एक लेख में मिलता है। इससे यह स्पष्ट होता है कि ईस्वी सन् की १२वीं शताब्दी के मध्य भाग तक इस गच्छ का स्वतंत्र अस्तित्व तो रहा, परन्तु इससे जुड़े हुए श्रमणों और श्रावकों की संख्या प्रायः नगण्य ही रही होगी और उनमें भी कोई प्रभावशाली या विद्वान् मुनि नहीं हुआ जो सिद्धसेनसूरि द्वारा प्रारम्भ किये गये साहित्य सृजन के कार्य को आगे बढ़ा सके।
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