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जैन श्वेताम्बर गच्छों का संक्षिप्त इतिहास इसी प्रशस्ति से यह भी ज्ञात होता है कि एक श्रावक परिवार द्वारा उक्त प्रति श्री आनन्दविमलसूरि के प्रशिष्य और धनविमलगणि के शिष्य (शिव) विमलगणि को पठनार्थ प्रदान की गयी। आनन्दविमलसूरि किस गच्छ के थे इस बारे में कोई सूचना नहीं मिलती । प्रताप सिंह जी का मंदिर, रामघाट, वाराणसी में संरक्षित नेमिनाथ की प्रतिमा पर उत्कीर्ण वि० सं० १५२० के लेख में प्रतिमाप्रतिष्ठापक के रूप में भी ब्रह्माणगच्छीय किन्हीं शीलगुणसूरि का नाम मिलता है जो समसामयिकता, नामसाम्य, गच्छसाम्य आदि बातों को देखते हुए उक्त प्रशस्ति में उल्लिखित शीलगुणसूरि से अभिन्न माने जा सकते हैं।
रसरलाकर की वि० सं० १५९८ में लिखी गयी प्रति की दाताप्रशस्ति में प्रतिलिपिकार ब्रह्माणगच्छीय वाचक शिवसुन्दर ने अपनी गुरु-परम्परा दी है, जो इस प्रकार है :
विमलसूरि
साधुकीर्ति
वा० शिवसुन्दर (वि० सं० १५९८ में
रसरत्नाकर के
प्रतिलिपिकार) ब्रह्माणगच्छ में भावकवि नामक एक रचनाकर हो चुके हैं। इनके द्वारा मरु-गुर्जर भाषा में रचित हरिश्चन्द्ररास और अंबडरास ये दो कृतियाँ मिलती हैं। इनकी प्रशस्तियों में इन्होंने अपने गुरु, प्रगुरु, गच्छ आदि का तो उल्लेख किया है। किन्तु रचनाकाल के बारे में वे मौन हैं। अंबडरास की प्रशस्ति से ज्ञात होता है कि इन्होंने अपने शिष्य लक्ष्मीसागर के आग्रह पर इसकी रचना की थी । हरिश्चन्द्ररास की वि० सं० १६०७ में लिखी गयी एक प्रति मुनि श्रीपुण्यविजय जी के संग्रह में उपलब्ध है१२, जिसके
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