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पूर्णतल्लगच्छ ४. त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित जैन धर्म प्रसारक सभा, भावनगर से ईस्वी सन् १९०६
- १९१३ में प्रकाशित हो चुका है। इस ग्रन्थ का १०वां पर्व महावीरचरित के रूप में है, जो वि० सं० १९६५ / ई० सन् १९०९ में प्रकाशित हुआ है। कृति के अन्त में ग्रन्थकार ने २१ श्लोकों की प्रशस्ति दी है। इसका एच० जानसन द्वारा किया गया आंग्लभाषानुवाद गायकवाड़ प्राच्य ग्रन्थमाला के अन्तर्गत - ६ भागों में प्रकाशित हो चुका है। मायापरैर्हतपरैः स्फुटमिन्द्रकल्पैस्तीर्थंकल्पकुविकल्पशविलुप्ता। दृष्टिर्यदीरितपदत्रमन्त्रात् सम्यक्तववमेति भविनां जयताज्तिनोऽसौ ॥ १ ॥ कुदृष्टो यद्वशतः सुदुष्टिभावं ययुस्त्यक्तविरोधसङ्गाः। शिवं शिवं तज्जिनशासनं नस्तनोतु निःशेषसमृद्धिहेतुः ॥ २ ॥ श्रीमांश्चान्द्रकुलेऽभवद्गुणनिधिः प्रद्युम्नसूरिप्रभुबन्धुर्यस्य स सिद्धहेमविधये श्रीहेमसूरिविधिः । तच्छिष्यावयवोऽत्र सूरिरजनि श्रीचन्द्रसेनाभिधस्तेनेदं रचितं प्रकाशपदवीं नेयं पुनः साधुभिः ॥ ३ ॥ कृत्वा प्रकरणमेतद् यत्कुशलमिहार्जितं मया किञ्जित् । तस्मात्तत्त्वैकरुचिर्भवतु जनः सिद्धसद्बोधः ॥ ४ ॥ द्वादशवर्षशतेषु श्रीविक्रमतो गतेषु मुनिभिः । चैत्रे संपन्नमिदं साहाय्यं चात्र ये नेमेः ॥ ५ ॥ इति श्री सिद्धहेमगुरुभ्रातृश्रीप्रद्युम्नसूरिशिष्यश्रीचंद्रसेनाचार्यरचित स्वोपज्ञं श्रीउत्पादादिसिद्धद्वात्रिशिकाविवरण समाप्तं । यह कृति ऋषभदेव केशरीमलजी श्वेताम्बर संस्था, रतलाम द्वारा वि० सं० १९९३ / ई० सन् १९३६ में प्रकाशित हो चुकी है। भोगीलाल सांडेसरा - हेमचन्द्राचार्य का शिष्य मंडल, जैन संस्कृति संशोधन मण्डल, वाराणसी १९५१ ई०, पृ० ३-२०. एम०ए० ढांकी - 'कवि रामचन्द्र अने कवि सागरचन्द्र' सम्बोधि, वर्ष ११,
अंक १-४, अहमदाबाद १९८५ ईस्वी, पृष्ठ ६८-८०. ७. सांडेसरा, पूर्वोक्त, पृष्ठ १९
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