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जैन श्वेताम्बर गच्छों का संक्षिप्त इतिहास उदयनविहारप्रशस्ति५ भी इन्हीं की कृतियां हैं। अपने कनिष्ठ गुरुभ्राता गुणचन्द्र के साथ इन्होंने द्रव्यालंकार और नाट्यदर्पण की वृत्ति के साथ रचना की। इसके अतिरिक्त इनकी अन्य कृतियां भी मिलती हैं। रामचन्द्र मुद्रावाले जो अनेक स्तोत्र प्राप्त हुए हैं, वे इन रामचन्द्र के न होकर जावालिपुर के बृहद्गच्छीय रामचन्द्रसूरि के अब सिद्ध हुए हैं।
महेन्द्रसूरि - ये हेमचन्द्र के शिष्यों में एक थे। इन्होंने अपने गुरु द्वारा रचित अनेकार्थसंग्रहकोष पर उनके निधन के पश्चात् उन्हीं के नाम पर अनेकार्थंकैरवाककौमुदी नामक टीका की रचना की । इनके द्वारा रचित अन्य किसी कृति का उल्लेख नहीं मिलता है । हेमचन्द्र के अन्य शिष्यों वर्धमानगणि और देवचन्द्र की कृतियों का पूर्व में उल्लेख किया जा चुका है। उनके अन्य शिष्यों के किन्हीं कृतियों की सूचना नहीं मिलती।
पूर्णतल्लगच्छ के आदिम आचार्य कौन थे, यह गच्छ कब अस्तित्व में आया; यद्यपि इस बारे में कोई साक्ष्य नहीं मिलता है, फिर भी ईस्वी सन् की १० वीं शताब्दी के अंतिम चरण में इस गच्छ का अस्तित्व प्रमाणित होता है। हेमचन्द्र की बहुमुखी प्रतिभा के कारण जयसिंह सिद्धराज और कुमारपाल के समय यह गच्छ गच्छविशेष की संकीर्णता से ऊपर उठकर श्वेताम्बर श्रमण संघ का पर्याय बन गया। हेमचन्द्र के मृत्योपरान्त उनकी शिष्य मंडली में उत्पन्न कलह तथा इसी समय कुमारपाल की मृत्यु के बाद जैनों के प्रति उत्पन्न राजकीय कोप से इस गच्छ का प्रभाव समाप्तप्राय हो गया । यद्यपि वि० सम्वत् की १३वी शती के अन्त तक इस गच्छ का स्वतंत्र अस्तित्व सिद्ध होता है, फिर भी इस समय तक यह अपने पूर्व गौरवमय स्थिति से निश्चितरूप से च्युत हो चुका था। किन्तु जनमानस में हेमचन्द्र का आज भी वही आदरपूर्ण स्थान है जो जयसिंह और कुमारपाल के समय में था और यह अपने आप में अभूतपूर्व है।
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