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जैन श्वेताम्बर गच्छों का संक्षिप्त इतिहास वाचनाचार्य और क्षमाश्रमण समानार्थक माने गये हैं, अतः इस लेख में उल्लिखित जिनभद्रवाचनाचार्य और विशेषावश्यकभाष्य आदि ग्रन्थों के रचयिता जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण एक ही व्यक्ति हैं । उक्त प्रतिमाओं में मूर्तिकला की कालगत विशेषताओं के आधार पर शाह जी ने दूसरी जगह इनका काल ई० स० ५५० से ६०० के बीच माना है, जो विशेष सही है । परम्परानुसार जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण की आयु १०४ वर्ष थी, अतः पं० मालवणिया ने इनका जीवनकाल वि० सं० ५४५ से वि० सं० ६५० / ई० स० ४८९ से ई० स० ५९४ माना है।
आचाराङ्ग और सूत्रकृताङ्ग की टीका' के रचयिता शीलाचार्य अपरनाम तत्त्वादित्य तथा चउप्पन्नमहापुरिसचरियं (वि०सं० ९२५ / ई० सन् ८३९) के रचनाकार शीलाचार्य अपरनाम विमलमति अपरनाम शीलाङ्क भी स्वयं को निवृत्तिकुलीन बतलाते हैं । मुनि जिनविजय, आचार्य सागरानन्दसूरि', श्रीमोहनलाल दलीचन्द देसाई आदि विद्वानों ने आचाराङ्ग-सूत्रकृताङ्ग की टीका के रचनाकार शीलाचार्य अपरनाम तत्त्वादित्य तथा चउप्पन्नमहापुरिसचरियं के कर्ता शीलाचार्य अपरनाम विमलमति अपरनाम शीलाङ्क को समसामयिकता के आधार पर एक ही व्यक्ति माना है । पं० मालवणिया और प्रा० मधुसूदन ढांकी ने भी इन आचार्यों की समसामयिकता एवं उनके समान कुल के होने के कारण उक्त मत का समर्थन किया है । इसके विपरीत चउप्पनमहापुरिसचरियं के सम्पादक श्री अमृतलाल भोजक' का मत है कि यद्यपि दोनों शीलाचार्यों की समसामयिकता असंदिग्ध है, किन्तु उन दोनों आचार्यों ने अपना पृथक्-पृथक् अस्तित्व स्पष्ट करने के लिए ही अपना अलग-अलग अपरनाम भी सूचित किया है, अतः दोनों भिन्न-भिन्न व्यक्ति हैं और उन्हें एक मानना उचित नहीं । चूंकि एक ही समय में, एक ही कुल में, एक ही नाम वाले दो आचार्यों का होना उसी प्रकार असंभव है जैसे एक ही परिवार में एक ही पिता के दो सन्तानों का एक ही नाम होना, अतः इस
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