SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 59
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन श्वेताम्बर गच्छों का संक्षिप्त इतिहास देवधिगणि क्षमाश्रमण और देववाचक को मुनि कल्याणविजयजी", आचार्य आत्मारामजी", आचार्य हस्तिमलजी आदि ने एक ही व्यक्ति माना है। चूंकि तपागच्छीय आचार्य देवेन्द्रसूरि रचित कर्मग्रन्थ की स्वोपज्ञवृत्तिमा नन्दीसूत्र के कर्ता का नाम देवर्धि दिया है। अंचलगच्छीय आचार्य मेरुतुंगसूरि ने भी अपनी कृति स्थविरावली अपरनाम विचारश्रेणि में पट्टक्रम का निर्देश करते हुए भूतदिन्न, लोहित्य और दूष्यगणि के पश्चात् देवधि का नाम दिया है। चूंकि नंदीचूर्णी में दूष्यगणि के शिष्य के रूप में देववाचक का नाम दिया है। इस आधार पर उक्त विद्वानों ने अपना मत व्यक्त किया है। यह एक निर्विवाद तथ्य है कि एक ही ग्रन्थकार अपने दो अलग-अलग ग्रन्थों में अपना दो अलग-अलग नाम और अलग-अलग गुरु-परंपरा नहीं दे सकता । साथ ही देवेन्द्रसूरि से लगभग ६०० वर्ष पूर्व हुए जिनदासगणि ने नंदीचूर्णि में स्पष्टरूप से देववाचक को दूष्यगणि का शिष्य बतलाया है, अत: देववाचक और देवधि न केवल अलग-अलग व्यक्ति हैं, बल्कि देववांचक उनसे दो पीढी पूर्व हुए हैं । जैसा कि ऊपर हम देख चुके हैं । चूंकि देववाचक का समय ४५० ई. के आसपास माना जाता है । अतः देवधि का समय भी ५०० ई. के आसपास रखने में कोई बाधा नहीं है। जैसा कि हम पीछे देख चुके हैं कल्पसूत्र की स्थविरावली के अनुसार भद्रबाहु के शिष्य गोडास से गोडास गण की उत्पत्ति हुई । इस गण की चारों शाखायें बंगाल के विभिन्न स्थानों से सम्बद्ध हैं। ये शाखायें ईस्वी पूर्व की चौथी शताब्दी में विद्यमान थीं । इन शाखाओं में से तीन तो बंगाल के प्रसिद्ध स्थानों में से हैं । प्रथम शाखा ताम्रलिप्तिका के सम्बन्ध में तो कुछ कहने की आवश्यकता ही नहीं रह जाती है । कोटिवर्ष को पण्णवणासूत्र में लाढ़ देश की राजधानी कहा गया है । पुण्ड्रवर्धन उत्तरी बंगाल में स्थित है। यह उल्लेखनीय है कि महावीर ने अपने विहारक्रम में बंगाल के भी कुछ क्षेत्रों की यात्रा की थी। इस आधार पर यह संभावना व्यक्त की जाती है कि उनकी मृत्यु के पश्चात् वहां उनके उपदेशों का प्रचार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003614
Book TitleJain Shwetambar Gaccho ka Sankshipta Itihas Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherOmkarsuri Gyanmandir Surat
Publication Year2009
Total Pages714
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy