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________________ ४४० जैन श्वेताम्बर गच्छों का संक्षिप्त इतिहास वाचनाचार्य शीलसुन्दर से कल्पसूत्र की प्रतिलिपि कराने वाले) वीरचन्दसूरि के शिष्य धनसारमुनि और प्रतिलिपिकार वाचनाचार्य शीलसुन्दर में परस्पर क्या सम्बन्ध था, इस बारे में उक्त प्रशस्ति से कोई जानकारी नहीं प्राप्त होती, संभवतः वे भी चैत्रगच्छीय ही रहे होंगे । ठीक यही बात जयसुन्दर के शिष्य तिलकरंग, जिन्हें पंचमी उद्यापन के अवसर पर जैसलमेर में उक्त प्रति भेंट की गयी थी. के बारे में भी कही जा सकती है। जैसा कि अभिलेखीय साक्ष्यों के अन्तर्गत आगे हम देखेंगे कि वीरचन्द्रसूरि द्वारा प्रतिष्ठापित ४ सलेख जिन प्रतिमायें मिलती हैं, जो कि वि० सं० १४५८, १४६०, १४६९ एवं १४७० की हैं। इन्हें समसामयिकता, नाम साम्य एवं गच्छ साम्य को देखते हुए वि० सं० १४७५ में चित्रित कल्पसूत्र की प्रशस्ति में उल्लिखित धनसार मुनि के गुरु वीरचन्द्रसरि से अभिन्न मानने में कोई बाधा दिखाई नहीं देती। चैत्रगच्छ से सम्बद्ध दूसरा साहित्य साक्ष्य है सम्यक्त्वकौमुदी की प्रशस्ति । चैत्रगच्छीय आचार्य गुणाकरसूरि ने वि० सं० १५०४ / ई० सन् १४४८ में उक्त ग्रन्थ की रचना की । यद्यपि इसकी प्रशस्ति में उन्होंने न तो अपने गुरु और न ही अपनी गुरु- परम्परा के किसी आचार्य का नामोल्लेख किया है, किन्तु चैत्रगच्छ से सम्बद्ध प्राचीन प्रशस्ति होने से यह महत्त्वपूर्ण है । गुणाकरसूरि की दूसरी कृति है वि० सं० १५२४ / ई० सन् १४६८ में रचित भक्तामरस्तवव्याख्या । इसकी प्रशस्ति से ज्ञात होता है कि चैत्रगच्छीय आचार्य धनेश्वरसूरि की मूल परम्परा में गुणाकरसूरि हुए, जिन्होंने उक्त कृति की रचना की । वि० सं० १५५४ / ई० सन् १४९८ में लिपिबद्ध की गयी भक्तामरस्तवव्याख्या की एक प्रति मुनि पुण्यविजयजी के संग्रह में उपलब्ध है, जिसकी दाताप्रशस्ति में चैत्रगच्छीय मुनि चारुचन्द्र का उल्लेख है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003614
Book TitleJain Shwetambar Gaccho ka Sankshipta Itihas Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherOmkarsuri Gyanmandir Surat
Publication Year2009
Total Pages714
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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