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________________ आगमिक गच्छ १३९ इस प्रकार यह स्पष्ट है कि आगमिकगच्छ १३वीं शती के प्रारम्भ अथवा मध्य में अस्तित्व में आया और १७वीं शती के अन्त तक विद्यमान रहा । लगभग ४०० वर्षों के लम्बे काल में इस गच्छ में कई प्रभावक आचार्य हुये, जिन्होंने अपनी साहित्योपासना और नूतन जिन प्रतिमाओं की प्रतिष्ठापना, प्राचीन जिनालयों के उद्धार आदि द्वारा पश्चिमी भारत (गुजरात, काठियावाड़ और राजस्थान) में श्वेताम्बर श्रमणसंघ को जीवन्त बनाये रखने में अति महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। यह भी स्मरणीय है कि यह वही काल है, जब सम्पूर्ण उत्तर भारत पर मुस्लिम शासन स्थापित हो चुका था, हिन्दुओं के साथ-साथ बौद्धों और जैनों के भी मन्दिर - मठ समान रूप से तोड़े जाते रहे, ऐसे समय में श्वेताम्बर श्रमण संघ को न केवल जीवन्त बनाये रखने बल्कि उसमें नई स्फूर्ति पैदा करने में श्वेताम्बर जैन आचार्यों ने अति महत्त्वपूर्ण योगदान दिया । विक्रम सम्वत् की १७वीं शताब्दी के पश्चात् इस गच्छ से सम्बद्ध प्रमाणों का अभाव है । अत: यह कहा जा सकता है कि १७वीं शती के पश्चात् इस गच्छ का स्वतंत्र अस्तित्व समाप्त हो गया होगा और इसके अनुयायी श्रमण एवं श्रावकादि अन्य गच्छों के अनुयायी हो गये होंगे । वर्तमान समय में भी श्वेताम्बर श्रमण संघ की एक शाखा त्रिस्तुतिकमत अपरनाम बृहद्सौधर्मतपागच्छ के नाम से जानी जाती है, किन्तु इस शाखा के मुनिजन स्वयं को तपागच्छ से उद्भूत तथा उसकी एक शाखा के रूप में स्वीकार करते हैं । संदर्भ-सूची : १. २. अगरचन्द नाहटा-‘“जैन श्रमणों के गच्छों पर संक्षिप्त प्रकाश" यतीन्द्रसूरि अभिनन्दनग्रन्थ (आहोर, १९५८ ई०) पृष्ठ १३५ - १६५. आषाढ़ादि पर एकोतरइ, पोस वदि इग्यारिसि अंतरइ । धंधूकपुरि कृपारस सत्र, सोमवारि समर्थिउ ए चरित्र ॥ कुमतरुख वणभंग गइंद, जिनशासन रयणायर इंदु | सद्गुरुश्रीअमरसिंहसूरिंद, सेवई भविय जसुय अरविंद ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003614
Book TitleJain Shwetambar Gaccho ka Sankshipta Itihas Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherOmkarsuri Gyanmandir Surat
Publication Year2009
Total Pages714
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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