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________________ यह आगमवाणी ही आज तीर्थंकर परमात्मा की अनुपस्थिति में हमारी आत्मा का मार्गदर्शन करती है। यही हमारे जीवन कल्याण का मुख्य आधार एवं स्रोत है। इन आगमों को हम अपेक्षाकृत शाश्वत भी कह सकते हैं और अशाश्वत भी। यह आगमवाणी अर्थरूप में अनादिकाल से विद्यमान है और अनादिकाल तक विद्यमान रहेगी इस अपेक्षा से शाश्वत है, परन्तु शब्द रूप में प्रत्येक तीर्थंकर के समय में उनके अपने गणधर द्वादशांगी का निर्माण करते हैं अत: अशाश्वत भी है। इन आगमों की एक विशिष्टता यह भी है कि इसके स्रष्टा यद्यपि आत्मज्ञ या आत्म साधक है, परन्तु इसकी विषयवस्तु अत्यन्त व्यापक है। अत: आगमों का परिशीलन मात्र मोक्षाभिलाषी या आत्मकल्याण के इच्छुक साधकों के लिये ही उपयोगी नहीं है, अपितु प्रत्येक विषय का जिज्ञासु जैनागमों से इच्छानुसार समस्त प्रकार की समस्याओं का समाधान पा सकता है। यह निर्विवाद रूप से स्वीकार किया जा सकता है कि जैनागम जीवन में एक नया विश्वास, नया आश्वास और नयी चेतना का संचार करते हैं। ये ग्रन्थ जहाँ एक ओर आत्मोत्थान की भूमिका प्रस्तुत करते हैं, वहीं व्यवहारिक जीवन की सफलता का आधार भी बनते हैं। इनमें जहाँ आत्मा की शाश्वत सत्ता का उद्घोष है, वहीं संसार एवं सांसारिक समस्त पदार्थों के प्रति असारता का बोध भी गूंजता है। . आगम में जो कुछ वर्णित है, वह सर्वज्ञ भगवन्तों का अनुभूत सत्य है। यही कारण है कि इनमें आत्मसाधना का जैसा क्रमिक एवं वैज्ञानिक विवेचन उपलब्ध होता है, वैसा किसी भी भारतीय साहित्य या पाश्चात्य साहित्य में उपलब्ध नहीं होता। भारतीय साहित्य के किसी दर्शन में अध्यात्मवाद उपलब्ध होता है, तो किसी में लोकचिन्तन । जैसे वेदों में आध्यात्मिक चिन्तन अल्पमात्रा में है, परन्तु उपनिषद् में मात्र आत्मचिन्तन ही है। इनमें ब्रह्मवाद व अध्यात्म की अवधारणा इतनी गम्भीर है कि उसे समझना जन-साधारण के लिये असम्भव है। पाश्चात्य साहित्य का तो विकास ही आलोचना की भूमिका पर होता है। जर्मन दार्शनिक सुप्रसिद्ध अन्वेषक एवं जिज्ञासु हर्मन कोधी, डॉक्टर शुबिंग आदि मुक्त हृदय से स्वीकार करते हैं कि दर्शन और जीवन का, आचार और विचार का, भावना और कर्तव्य का सन्तुलित विवेचन एवं समन्वय जैसा जैनागमों में हुआ है, वैसा अन्यत्र दुर्लभ है। 40 / सूत्रकृतांग सूत्र का दार्शनिक अध्ययन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003613
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Ka Darshanik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNilanjanashreeji
PublisherBhaiji Prakashan
Publication Year2005
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_related_other_literature
File Size18 MB
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