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हुआ तो श्रमण संस्कृति स्वत: ही दो खण्डों में विभाजित हो गई - जैन श्रमण परम्परा एवं बौद्ध श्रमण परम्परा ।
जैन श्रमण परम्परा इस संस्कृति का मुख्य लक्ष्य विचारों की निर्मलता एवं आचार की पवित्रता रहा है। राग-द्वेष की ग्रन्थियों से जो सर्वथा मुक्त हो चुके हैं अथवा मुक्त होने के लिये सतत संयम साधना में पूर्ण प्रयत्नशील हैं, वे निर्ग्रन्थ श्रमण कहलाते है। उन्हें जैन भिक्षु के रूप में भी सम्बोधित किया जाता है।
इस निर्ग्रन्थ श्रमण संस्कृति के प्रणेता वे वीतराग सर्वज्ञ होते हैं, जो रागद्वेष रूप आत्म शत्रुओं को सम्पूर्णत: अपनी आत्मा से अलग कर देते हैं एवं परिणामस्वरूप अपनी आत्मा में कभी भी नष्ट न होने वाला केवलज्ञान का अनन्त और अखण्ड आलोक प्रकट करते हैं। अपने उसी केवलज्ञान के प्रकाश में वस्तु का जैसा स्वरूप एवं स्वभाव वे देखते हैं, उसको वैसा ही अपने श्रीमुख से वर्णित करते हैं।
इनके द्वारा प्ररूपित वचन ही आप्त वचन या आगम कहलाते हैं। आगम अर्थात् तत्त्वज्ञान, आत्मज्ञान या आचार-विचार को सम्यक सम्बोध देने वाले शास्त्र-वचन । ये आगम ही जैन धर्म, दर्शन तथा संस्कृति के मुख्य आधार स्तम्भ एवं संवाहक हैं।
बौद्ध श्रमण परम्परा महात्मा बुद्ध के शिष्य एवं अनुयायी शाक्य अथवा बौद्ध भिक्षु कहलाये। इनका आचार मध्यम मार्ग कहलाता है। इनकी संस्कृति में करुणा की मुख्यता है। ये आचार की कठोरता इतनी ही स्वीकारते हैं, जितनी सामान्य रूप से सहन की जा सके। इनका प्रसिद्ध वाक्य है - वीणा के तार उतने मत कसो कि तार टूट जाय और इतना ढीला भी न छोड़ो कि तार बजे ही नहीं। इनके मुख्य ग्रन्थ हैं- बौद्ध त्रिपिटक।
जैन एवं वैदिक संस्कृति में अन्तर - जैन संस्कृति अध्यात्म प्रधान रही है। इसके प्रणेता सर्वज्ञ केवलज्ञानी तीर्थंकर परमात्मा रहे हैं जबकि वैदिक संस्कृति में कर्मकाण्ड, यज्ञ, यागादि एवं वर्ण व्यवस्था की प्रधानता रही है। इसके प्रणेता कोई विशिष्ट व्यक्ति न होकर ईश्वर को माना जाता है।
38 / सूत्रकृतांग सूत्र का दार्शनिक अध्ययन
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