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________________ लोक में अनन्त रात-दिन अथवा अनन्त जीवों का होना असम्भव नहीं है। आकाश में अवगाहन की क्षमता है और जीवों में परिणति की सूक्ष्मता है, अत: असंख्येय प्रदेशात्मक लोक में अनन्त जीवों का होना सम्भव है।6।। भगवान महावीर ने यहाँ अर्हत् पार्श्व के सिद्धान्त को उद्धृत करते हुए असंख्येय प्रदेशात्मक लोक का प्रतिपादन किया कि लोक शाश्वत एवं प्रतिक्षण स्थिर भी है और उत्पन्न, विगत (विनाशी) एवं परिणामी भी है। वह अनादि होते हुए अनन्त है और अनन्त होते हुए भी प्रदेशों की अपेक्षा से परिमित है। भगवती में प्रतिपादित लोकवाद की विस्तृत विचारणा में लोक के विभिन्न अपेक्षाओं से विभिन्न स्वरूप उपलब्ध होते है। लोक नित्य भी है, अनित्य भी है। सान्त भी है, अनन्त भी है। असंख्यप्रदेशी लोक में रात-दिन अनन्त भी है और परित्त-परिमित भी है। भगवान महावीर की इस निरूपण शैली में विवक्षा भेद अवश्य है पर विरोधाभास नहीं। द्रव्यार्थिक नय तथा पर्यायार्थिक नय की अपेक्षा से लोक की यह व्याख्या जैन दर्शन के सापेक्षावाद (स्यादवाद) को ही प्रकट करती है। पञ्चास्तिकाय रूप लोक का भिन्न-भिन्न अपेक्षाओं से विश्लेषण सूत्रकृतांग में वर्णित पाखंडियों की लोक संबंधी मिथ्या मान्यताओं की निरस्त करके लोक के यथार्थ स्वरूप को प्रतिष्ठित करता है। सन्दर्भ एवं टिप्पणी आचारांग भाष्यम् - 1/1/5, पृ.-25 आचारांग चूर्णि, पृ.-14 ठाणं - 2/417 उत्तराध्ययन सूत्र - 28/9 भगवती सूत्र - 13/4/481 (अ) षड्दर्शन समुच्चय टीका, 4/9/165 (ब) द्रव्य विज्ञान, पृ.-135 (शोध ग्रन्थ) ठाणं - 8/114 भगवती - 2/124-135 ठाणं - 4/495 (अ). भगवती सूत्र - 2/10/10 (ब). ठाणं - 2/152 बृहद्रव्यसंग्रह - 22 सूत्रकृतांग सूत्र में वर्णित वादों का तुलनात्मक अध्ययन / 395 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003613
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Ka Darshanik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNilanjanashreeji
PublisherBhaiji Prakashan
Publication Year2005
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_related_other_literature
File Size18 MB
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