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जैसे बिजली के तार बिजली को, रेल की पटरी रेल को चलने के लिये प्रेरित नहीं करती अपितु उदासीन भाव से सहायक मात्र होती है, उसी प्रकार धर्मास्तिकाय भी उदासीन सहायक मात्र बनता है । जैसे छाया यात्रियों को स्थिर होने में सहकारी कारण है, उसी प्रकार स्थित होते जीवों और पुद्गलों को अधर्मास्तिकाय स्थिर होने में उदासीन सहायक बनता है । "
गुण की अपेक्षा आकाश अवगाहन गुण वाला है ।" उत्तराध्ययन में भी आकाश के अवगाहन गुण को ही पुष्ट किया गया है।" वह पुद्गलों को अवकाश देता है। जीव उपयोग गुणवाला तथा पुद्गल ग्रहणगुण- समुदित होने की योग्यता वाला है। "
भगवती मे कालोदायी20 आदि अन्यतीर्थिको का भी विवेचन मिलता है, जो पंचास्तिकाय के विषय में सन्देहशील थे। उनका तर्क था जिसे हम नहीं देखते - जानते, उसका अस्तित्व कैसे हो सकता है ? मददुक के प्रकरण से भी इसकी पुष्टी होती है । भगवान् ने मददुक से कहा- जिसे इन्द्रिय ज्ञानी नहीं जानता, नहीं देखता, उसका अस्तित्व नहीं होता, ऐसा नहीं है । 2" प्रस्तुत विवेचन से यह फलित होता है कि जो पाँच अस्तिकाय रूप है, वह लोक है । षड्-द्रव्यात्मक लोक की कल्पना पञ्चास्तिकाय का ही विकसित रूप है।
चतुष्टयी की अपेक्षा लोक
प्राचीनकाल में लोक सादि है या अनादि ? सांत है या अनन्त ? यह बहुचर्चित प्रश्न था। इस संबंध में स्कंदक को जिज्ञासा हुई। वे महावीर के पास पहुँचे और इस प्रश्न का समाधान चाहा । भगवान ने कहा- लोक चार प्रकार का है - द्रव्यलोक, क्षेत्रलोक, काललोक तथा भावलोक ।
द्रव्यलोक द्रव्य की अपेक्षा यह लोक एक और सान्त है । क्षेत्रलोक - क्षेत्र की अपेक्षा यह लोक असंख्य कोडा-कोडी योजन तक लम्बा है, असंख्य कोडा - कोडी परिधि वाला है, और अंत सहित है ।
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काललोक काल की अपेक्षा यह लोक भूत, वर्त्तमान और भविष्य इन तीनों कालों में शाश्वत है। ध्रुव, नियत, अक्षय, अवस्थित, अव्यय और नित्य है । भावलोक भाव की अपेक्षा यह लोक अनन्त वर्णपर्यायरूप, गन्धपर्यायरूप, रसपर्यायरूप और स्पर्शपर्यायरूप है। इसी प्रकार अनंतसंस्थानपर्यायरूप, अनंतगुरुलघुपर्यायरूप एवं अनंत अगुरु-लघुपर्यायरूप है। उनका अन्त
सूत्रकृतांग सूत्र में वर्णित वादों का तुलनात्मक अध्ययन / 393
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