________________
४१
शिष्यपरिवार - सोमसुन्दरसूरि के शिष्य रत्नशेखरसूरि और जयचन्द्रसूरि जिनका पूर्व में परिचय दिया जा चुका है, मुनिसुन्दरसूरि के आज्ञानुवर्ती थे। मुनिसुन्दरसूरि के निधन के पश्चात् रत्नशेखरसूरि उनके पट्टधर बने ।
मुनिसुन्दरसूरि के एक शिष्य संघविमल हुए, जिन्होंने वि०सं० १५०२ / ई०स० १४४५ में सुदर्शन श्रेष्ठीरास की रचना की।
उनके दूसरे शिष्य हर्षसेन द्वारा रचित कोई कृति नहीं मिलती किन्तु हर्षसेन के शिष्य हर्षभूषण द्वारा रचित श्राद्धविधिविनिश्चय (रचनाकाल वि०सं० १४८० / ई०स० १४२४), अंचलमतदलन, पर्युषणाविचार (रचनाकाल वि०सं० १४८६ / ई०स० १४२९) तथा वाक्यप्रकाश औक्तिकटीका नामक कृति प्राप्त होती है ।" "
मुनिसुन्दरसूरि के तीसरे शिष्य विशालराज द्वारा रचित कोई कृति नहीं मिलती, किन्तु इनके शिष्यों-प्रशिष्यों का विभिन्न रचनाओं के कर्ता एवं प्रतिलिपिकार के रूप में नाम मिलता है । ३ इनका संक्षिप्त विवरण निम्नानुसार है :
१. विवेकसागर - इनके द्वारा रचित हरिशब्दगर्भित वीतरागस्तवन नामक कृति प्राप्त होती है।
२. मेरुरनगणि- इनके शिष्य संयममूर्ति का प्रतिलिपिकार के रूप में उल्लेख मिलता
है।
३. कुशलचारित्र - इनके शिष्य रंगचारित्र द्वारा वि०सं० १५२९ में प्रतिलिपि की गयी क्रियाकलाप की प्रति प्राप्त हुई है।
४. सुधाभूषण इनके एक शिष्य जिनसूरि द्वारा रचित गौतमपृच्छाबालावबोध (रचनाकाल वि०सं० १५०५ के आसपास), प्रियंकरनृपकथा, रूपसेनचरित्र आदि कृतियाँ प्राप्त होती
हैं।
सुधाभूषण के दूसरे शिष्य कमलभूषण द्वारा रचित कोई कृति नहीं मिलती किन्तु इनके शिष्य विशालसौभाग्यगणि द्वारा वि०सं० १५९५ में लिखी गयी कल्पसूत्र की प्रति सिनोर के जैनज्ञान भंडार में संरक्षित है । ५४
मुनिसुन्दरसूरि के चौथे शिष्य शिवसमुद्रगणि हुए। इनके द्वारा रचित कोई कृति नहीं मिलती और न ही इस सम्बन्ध में कोई उल्लेख ही प्राप्त होता है किन्तु इनके शिष्य विमलगण द्वारा वि०सं० १५१७ में लिखित नेमिनाथचरित्र की एक प्रति पाटण के ग्रन्थभंडार से प्राप्त हुई है ऐसा मुनि चतुरविजयजी ने उल्लेख किया है। ""
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org