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________________ नामसाम्य आदि के आधार पर उक्त पद्मरत्नसूरि से अभिन्न माना जा सकता है। इस आधार पर दोनों शिलालेखों में उल्लिखित भावविजय और कमलविजय परस्पर गुरुभ्राता सिद्ध होते हैं। नर्बुदाचार्य और भावरत्नसूरि के बीच किस प्रकार का सम्बन्ध था, यह ज्ञात नहीं होता। भावरत्नसूरि (वि०सं० १७८५-९०) शिलालेख भावविजय कमलविजय कमलकलशशाखा से सम्बद्ध अगला साक्ष्य वि०सं० १८३८ का एक लेख२१ है जो अचलगढ़ से प्राप्त हुआ है। यह लेख इस शाखा के हर्षरत्नसूरि और सुन्दरविजयगणि की चरण पादुका पर उत्कीर्ण है। ___ चूंकि वि०सं० १७८५ और १७९० में इस शाखा के आचार्यों का रत्नान्त नाम मिलता है, यही बात वि०सं० १८३८ के चरणपादुका के लेख में भी हम देखते हैं, अत: यह कहा जा सकता है कि भावरत्नसूरि के पश्चात् और वि० सं० १८३८ के पूर्व कमलकलशशाखा में हर्षरत्नसूरि नामक आचार्य हुए जिनके शिष्य जीवणविजय ने वि०सं० १८३८ में अपने गुरु की चरणपादुका स्थापित करायी। उक्त साक्ष्यों के आधार पर इस शाखा के मुनिजनों के गुरु-परम्परा की एक तालिका निर्मित होती है, जो इस प्रकार है : द्रष्टव्य तालिका - १. ऋषभदेव जिनालय, अचलगढ में उत्कीर्ण वि.सं० १९६३ वैशाख शुक्ल ११ शुक्रवार के एक अभिलेख में इस शाखा के भट्टारक यशोभद्रसूरि की पादुका और अपनी पादुका को भट्टारक विजयमहेन्द्रसूरि ने सिरोहीदेश के अचलदुर्ग में श्रीकेशरी सिंह के राज्य में स्थापित करायी। मुनि जयन्तविजय-अर्बुदप्राचीनजैनलेखसंदोह, लेखांक ४९०। मूल लेख की वाचना निम्नानुसार है: सं. १९६३ वैशाख सुदि ११ शुक्रवासरे कमलकलशशाखायां श्रीमतपागच्छे भट्टारक श्रीयशोभद्रसूरीश्वर पुन:निजपादुक० भट्टारक श्री विजयमहेन्द्रसूरिभिः प्रतिष्ठितम् (ता) श्री सिरोहीदेशे श्रीकेशरीसिंधराज्ये श्रीअचलमहादुर्गे। चिन्तामणि पार्श्वनाथ जिनालय, लाज, अचलगढ़ में उत्कीर्ण वि०सं० १९७७ ज्येष्ठ वदि १३ रविवार के एक शिलालेख में इस शाखा के पट्टधर मुनिजनों के नाम मिलते हैं, जो इस प्रकार है: कमलकलशसूरि-जयकल्याणसूरि-भट्टरक विशालसूरि-भ०लक्ष्मीरत्नसूरि-भ० हंसरत्नसूरिभ०कल्याणरत्नसूरि-भ० धर्मरत्नसूरि-भ० देवरत्नसूरि-भ० जयरत्नसूरि- भ० पद्मरत्नसरिभ० हर्षरत्नसूरि-भ० राजेन्द्रसूरि-भ० यशोभद्रसूरि-भरविरत्नसूरि-विद्यमान कमलकलशगच्छ (शाखा) पति विजयमहेन्द्रसूरि। लेख में इनकी पादुका स्थापित करने का उल्लेख है। मुनि जयन्तविजयअर्बुदाचलप्रदक्षिणाजैनलेखसंदोह, लेखांक ४८२। __ यहीं से प्राप्त उक्त तिथि एवं संवत् के उल्लेख वाला एक अन्य शिलालेख भी है जिसमें उक्त आचार्य द्वारा चिन्तामणि पार्श्वनाथ के जिनालय की प्रतिष्ठा का उल्लेख हैं, अर्बुदाचलप्रदक्षिणाजैनलेखसंदोह, लंखांक ४८३। वि०सं० १९७८ के उक्त शिलालेख में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003611
Book TitleTapagaccha ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2000
Total Pages362
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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