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श्राविका चम्पा के छहमासी व्रत के प्रसंगवश बादशाह अकबर को आचार्य हीरविजयसूरि के बारे में जानकारी प्राप्त हुई तो वह उनके दर्शन एवं उनसे धार्मिक चर्चा हेतु अत्यन्त उत्सुक हुआ। उसी समय बादशाह ने आचार्यश्री के पास, जो उस समय गुजरात में गंधार नामक स्थान पर थे, बुलाने के लिये निमंत्रण भेजा। बादशाह का आमंत्रण और वहाँ धर्मप्रभावना का अपूर्व अवसर देखकर आचार्य हीरविजयसूरि ने वि०सं० १६३८ मार्गशीर्ष वदि ७ को तेरह मुनिजनों के साथ गंधार से प्रस्थान किया और वि० सं० १६३९ ज्येष्ठ दि १३ को फतेहपुर सीकरी पहँचे। दूसरे दिन बादशाह की उनसे भेंट हुई। आचार्यश्री से हुई धार्मिक चर्चा से अत्यन्त प्रभावित होकर बादशाह ने उन्हें जगद्गुरु की उपाधि प्रदान की। सूरिजी ने तीन वर्ष तक आगरा, फतेहपुर सीकरी, शौरीपुर आदि स्थानों पर विचरण किया और इस अवधि में विभिन्न अवसरों पर अकबर को धर्मोपदेश दिया। उनके आग्रह से बादशाह ने पर्युषण के दिनों में जीवहिंसा पर पूर्णरूपेण प्रतिबन्ध लगा दिया और इसके लिये अपने साम्राज्य के विभिन्न सूबों में फरमान भेजा। वि० सं० १६४२में सूरिजी गुजरात लौट गये किन्तु बादशाह के आग्रह से शांतिचन्द्र गणि को वहीं दरबार में छोड़ दिया।
अकबर पर हीरविजयसूरि का प्रभाव चिरस्थायी रहा और सूरिजी के गजरात लौट आने के पश्चात् भानुचन्द्र, सिद्धिचन्द्र, विवेकहर्ष आदि मुनि राजदरबार में जाने-आने लगे। बादशाह ने हीरविजयसूरि के शिष्य एवं पट्टधर विजयसेनसूरि को वि०सं० १६४९ में जब वह लाहौर में प्रवास में था, आमंत्रित किया और उनकी प्रखर प्रतिभा तथा पाण्डित्य से प्रभावित होकर उन्हें सवाईहीर की उपाधि दी। जैन मुनिजनों का यह प्रभाव जहाँगीर और शाहजहां के समय में भी पर्याप्त अंशों में बना रहा।
___ आचार्य हीरविजयसूरि द्वारा रचित द्वादशजल्पविचार, अन्तरिक्षपार्श्वनाथस्तवन, जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिवृत्ति आदि कुछ कृतियां मिलती हैं। इनका शिष्य परिवार बहुत विशाल था। जिनमें विजयसेनसूरि, शान्तिचन्द्र उपाध्याय, भानुचन्द्र उपाध्याय पद्मसागर, वाचक कल्याणविजय, सिद्धिचन्द्र, नंदिविजय, सोमविजय, धर्मसागर उपाध्याय, प्रीतिविजय, तेजविजय, आनन्दविजय, विनीतविजय, धर्मविजय, हेमविजय, शुभविजयगणि आदि उल्लेखनीय हैं।८१अ वाचक कल्याणविजय के एक शिष्य नयविजय हुए। उपाध्याय यशोविजय इन्हीं के शिष्य थे। १८वीं शताब्दी के महान् विद्वानों में उनकी गणना होती है। इन्होंने विशाल संख्या में ग्रंथों की। इनकी कृतियां संस्कृत, प्राकृत, गुजराती और हिन्दी भाषा में हैं। गद्य और पद्य दोनों में समान रूप से ही इनकी प्रतिभा प्रकट हुई है। वि०सं० १६५२/ई०स० १५९६ में काठियावाड़ के ऊना नामक ग्राम में आचार्य श्री का निधन हुआ।
आचार्य हीरविजयसूरि के निधन के पश्चात् उनके शिष्य विजयसेनसूरि ने तपागच्छ का नायकत्त्व ग्रहण किया। इनके बारे में पट्टावलियों के अतिरिक्त हेमविजय द्वारा रचित
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