________________
साध्वी डॉ. प्रतिमा
के लिए निर्यापकाचार्य की आवश्यकता होती है। पुस्तक के अन्त में लेखक ने संलेखना की महत्ता को रेखांकित करते हुए संलेखना साधकों के लिए जप करने के विभिन्न पाठों का भी समावेश किया
आत्ममुक्ति-समाधिमरण विषयक इस लघु पुस्तिका का प्रारम्भ आत्मबोध नामक प्रथम अध्याय से होता है, जिसमें लेखक ने शरीर और आत्मा के भेद-विज्ञान का उल्लेख करते हुए इस बात पर जोर दिया है कि आध्यात्मिक-क्रियाएँ इस दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं कि वे ही प्राणी के भावी जीवन का निर्धारण करती हैं। इसमें सागार और निरागार-संलेखना का उल्लेख करते हुए उसकी साधना-विधि को स्पष्ट किया गया है तथा इसके साधकों द्वारा उपादेय ध्यानविधि का निर्देश किया गया है। पुस्तिका के अन्त में मृत्यु-महोत्सव नामक एक काव्यात्मक-कृति भी दी गई है, जिसमें मृत्यु को आत्मा द्वारा शरीर-बन्धन से मुक्ति के रूप में लिया गया है।
समाधिमरण-साध्वी विजयश्री द्वारा विरचित इस पुस्तिका में समाधिमरण के विविध पक्षों की चर्चा करते हुए आत्म-स्वरूप का बोध, संसार–भ्रमण में हुए ज्ञात व अज्ञात आशातनाओं के लिए सभी जीवों से क्षमापना करना, चतुःशरण ग्रहण और समाधिमरण । दिया गया है। समाधिमरण की पूर्व तैयारी के रूप में संलेखना तथा अन्त में आमरण अनशन अंगीकार करने की विधि, संलेखना के पांच अतिचार, समाधिमरण के 73 बोल तथा संलेखना से सम्बन्धित भावनाओं का वर्णन भी किया गया है।
जीवन की अन्तिम मुस्कान-उपाध्याय केवलमुनि विरचित समाधिमरण-विषयक इस संक्षिप्त, किन्तु सर्वग्राही पुस्तक में लेखक ने संलेखना और समाधिमरण से संबंधित विभिन्न विषयों पर पर्याप्त प्रकाश डाला है। इसमें मत्य की अवधारणा तथा मत्य-विज्ञान की चर्चा की गई है। संलेखना और आत्महत्या के अंतर को भी स्पष्ट किया गया है। इस पुस्तक के अन्त में लेखक ने निष्कर्षतः यह कहा है कि जब मृत्यु अवश्यम्भावी हो जाए, तो समभाव-पूर्वक स्वेच्छया-मृत्यु का आलिंगन करना ही समाधिमरण है । इस पुस्तक में उपाध्यायजी ने वैदिक-परम्परा से भी इच्छा मृत्यु के दृष्टान्त दिए हैं तथा जैन-परम्परा से भी इच्छा-मृत्यु के दृष्टांत दिए हैं, जिनमें उन्होंने अध्यात्म-साधना से परिपूर्ण जीवन जीने के पश्चात् अन्त में समाधिपूर्वक सकाम-मृत्यु का वरण किया है। लेखक ने पुस्तक मे समाधिमरण से सम्बन्धित कुछ प्राचीन पाठ भी दिए हैं, जैसेरिष्टसूचक, सागार-संथारा एवं निरागार-संथारा आदि।
जैन-आचारः सिद्धान्त और स्वरूप- वर्तमानकाल के जैन-दर्शन के एक विचक्षण विद्वान आचार्य देवेन्द्र मुनि द्वारा विरचित इस विद्वत्तापूर्ण ग्रन्थ के चतुर्थ खण्ड के समाधिमरण की कला (संलेखना) नामक ग्यारहवें अध्याय में समाधिमरण-विषयक सभी पक्षों की विस्तृत विवेचना की गई है। जन्म के बाद मृत्यु की अपरिहार्यता को रेखांकित करते हुए विद्वान् लेखक ने मृत्यु-भय की चिन्ता से रहित समाधिपूर्वक मृत्यु को एक कला बताया है। लेखक ने कहा है कि इस कला के साधक मृत्यु को आत्मा द्वारा शरीर के बन्धनों से मुक्ति के समारोह के रूप में देखते हैं, अतः वे
'संलेखना एक अनुचिन्तन - जैन रमेशचन्द्र - श्री टाया जैन छात्रवृत्ति ट्रस्ट, उदयपुर, 1989. आत्ममुक्ति - नेमीचन्द कांकरिया स्मृति ग्रन्थ नं. 3 - नरेंद्र ट्रेडिंग कार्पोरेशन, ब्यावर, 1992. समाधिमरण - साध्वी श्रीविजयश्री - श्री जैनसंघ, सोलापुर, 1993. जीवन की अन्तिम मुस्कान - उपाध्याय केवलमुनि जैन दिवाकर सेवा संघ, चिकबालापुर 1984
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org