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कषायों के क्रमिक - विसर्जन, शारीरिक-समाधि की आराधना में बाधक दोषों को दूर करने के उपाय बताएं हैं, अन्त में संलेखना का फल, मोक्ष का स्वरूप तथा मुक्त आत्माओं के लक्षण बतलाते हुए संलेखना की आराधना द्वारा होने वाले आत्मोत्थान का वर्णन किया गया है । '
वसुनन्दी - श्रावकाचार - आचार्य वसुनन्दी - विरचित श्रावकाचार्य का सन्दर्भित इस ग्रन्थ में समाधिमरण का चतुर्थ शिक्षाव्रत के रूप में उल्लेख किया गया है ।
सागार-धर्मामृत-धर्मामृत सागार के रचियता पण्डित आशाधरजी हैं। सागार का अर्थ होता है- गृहस्थ । गृहस्थाश्रम में रहते हुए भी व्यक्ति मोक्ष या निर्वाण की साधना कर सकता है, इसी का विवरण इसमें मिलता है ।
यह आठ अध्यायों में विभक्त है। प्रथम अध्याय में गृहस्थ के लक्षण स्पष्ट किए गए हैं। गृहस्थ को आहार, भय, मैथुन एवं परिग्रहरूपी ज्वर से पीड़ित बताया गया है । '
द्वितीय अध्याय में अनुज्ञा, अष्टमूल, मद्य, मांस, आहार नियम तथा इसी तरह की अन्य जैन शिक्षाओं का उल्लेख है । "
तृतीय अध्याय से सप्तम अध्याय तक नैष्ठिक - श्रावक का वर्णन है । इन अध्यायों में नैष्ठिक के भेद, ग्यारह प्रतिमा, बारह व्रत, श्रावकों की दिनचर्या आदि का विवरण उपलब्ध होता है । '
अष्टम अध्याय में समाधिमरण के स्वरूप, विधि, योग्यस्थान, योग्य संस्तर, समाधिमरण और आत्महत्या में अन्तर तथा कार्य एवं कषाय को क्षीण करने वाली साधना का विवरण प्रस्तुत किया गया है ।
आहार - त्याग एवं विभिन्न प्रकार के तपों का आलम्बन, समाधिमरण में सहायक आचार व उसके अतिचार का महत्व तथा समाधिमरण की पूरक साधनाओं का भी विस्तृत विवरण मिलता है।' समाधिमरणोत्साह-दीपक - विक्रम की पन्द्रहवीं शतीं की सुख्यात दिगम्बर जैनाचार्य द्वारा विरचित इस ग्रन्थ में धर्म-आराधना करने में असमर्थ व्यक्ति द्वारा समाधिमरणरूपी इच्छामृत्यु को अंगीकार करने को प्रशंसनीय मृत्यु बताया है। इस ग्रन्थ में समाधिमरण की प्रेरणा दी गई है, साथ ही इसके सात प्रकारों तथा इसे कब और क्यों ग्रहण किया जाए ? इसका भी वर्णन किया गया 1 इसके अतिरिक्त इसमें पूर्व तैयारी, उपसर्ग - विजय, यह व्रत कहाँ ग्रहण किया जाए तथा व्रत ग्रहण - विधि एवं आराधना - विधि का वर्णन भी किया गया है।
इसमें आराधना की शुद्धता, आराधना के दौरान दस मुनिधर्मों सहित धर्मध्यान की आवश्यकता, पंच महाव्रतों की शुद्धि के लिए पच्चीस बोलों की भावना तथा शुक्लध्यान प्राप्त करने की आवश्यकता पर बल दिया गया है तथा समाधिमरण की आराधना में निर्यापकाचार्य की भूमिका आदि की विस्तृत चर्चा की गई है।
रत्नकरण्डक श्रावकाचार - आचार्य समन्तभद्र - अनुवादक आर्यिका स्याद्वादमतिजी, भारतवर्षीय अनेकान्त विद्वत्-परिषद् मुज्जफ्फरनगर, 1997. अध्याय 6
2 'वसुनन्दी (आचार्य) - वसुनन्दी श्रावकाचार - भारतीय ज्ञानपीठ, काशी,, 1952.
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1
'धर्माऽमृत (सागार)
वही
साध्वी डॉ. प्रतिभा
वही
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1/2.
5 वही - सम्पूर्ण द्वितीय अध्याय.
' धर्माऽमृत (सागार)
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सम्पादक - अनु. कैलाशचन्द्र सिद्धान्तशास्त्री - प्रधान सम्पादकीय -
पृ. 5.
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• तृतीय अध्याय से सप्तम अध्याय के अनुसार.
अष्टम अध्य य.
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