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________________ 220 है कि वर्त्तमान विश्व में जो वैर विरोध, कलह और संघर्ष है, उन सबके मूल में कहीं-न-कहीं भोगाकांक्षा और देहासक्ति रही हुई है । साध्वी डॉ. प्रतिभा समाधिमरण की साधना हमें भोगाकांक्षा और देहासक्ति से मुक्ति दिलाती है तथा यह सिखाती है कि सांसारिक समस्त उपलब्धियाँ मात्र संयोग है। यहाँ तक कि हमारा शरीर भी एक संयोग ही हैं। संयोगों का वियोग अपरिहार्य है और इसी से यह भी फलित होता है कि देह एक सांयोगिक घटना है तथा विनश्वर है, अतः इसका वियोग तो होना ही है। देहासक्ति से युक्त होकर भोगों को भोगने की इच्छा सदैव अपूर्ण ही रही है, अतः साधक को जीवन और मरण -दोनों में समभाव रखना चाहिए तथा भोगाकांक्षा के परिणामस्वरूप होने वाले निदान से बचना चाहिए, अर्थात् मुझे अगले जीवन में यह मिले - ऐसी इच्छा नहीं रखना चाहिए, क्योंकि ऐसी इच्छा भी निर्वाण में बाधक है। इस प्रकार, इस अन्तिम अध्याय में हमने जहाँ एक ओर समाधिमरण और आत्महत्या का अन्तर स्पष्ट किया है, वहीं दूसरी ओर यह भी बताया है कि भोगाकांक्षा और देहासक्ति का त्याग कर व्यक्ति किस प्रकार शान्तिपूर्वक जीवन जी सकता और मृत्यु को उपस्थित देखकर अविचलित रह सकता है। यही हमारे इस शोध का निष्कर्ष है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003609
Book TitleAradhanapataka me Samadhimaran ki Avadharna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPratibhashreeji, Sagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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