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________________ 218 साध्वी डॉ. प्रतिभा मानती है कि यदि सहज रूप से मृत्यु सामने उपस्थित हो, तो समभावपूर्वक उसका स्वागत कर देहत्याग कर देना चाहिए, किन्तु स्वयं देहत्याग का कोई उपक्रम नहीं करना चाहिए। बौद्ध-परम्परा में भी मृत्यु-वरण की यह प्रक्रिया किस रूप में प्रचलित रही है, इसकी हमने अनेक उदाहरणों के आधार पर चर्चा की है। इस सन्दर्भ में हमारा मुख्य उपजीव्य डॉ. रज्जनकुमार का ग्रन्थ 'समाधिमरण' रहा है, किन्तु हमने यह दिखाने का प्रयत्न किया है कि बौद्ध-परम्परा में शस्त्रघात आदि के माध्यम से जो देहत्याग की बात कही गई है, वह भी समाधिमरण की कोटि में नहीं आती, क्योंकि उसमें भी देहपात का उपक्रम व्यक्ति स्वयं करता है। जैन धर्म में मात्र यह माना गया है कि यदि किसी भी निमित्त से, अथवा उपसर्ग आदि के रूप में यदि दूसरा व्यक्ति या प्राणी देहघात करता है, तो साधक को वहाँ समभाव रखना चाहिए। जैन-परम्परा में देह-पोषण के प्रयत्नों का त्याग किया जाता है। वह मात्र देहासक्ति से ऊपर उठने के लिए है। इस प्रकार, हम देखते हैं कि चाहे बौद्ध-परम्परा हो, चाहे वैदिक-परम्परा हो - दोनों ही विशेष परिस्थिति मे व्यक्ति को देहपात करने की स्वीकृति देती है, जबकि जैन-परम्परा में व्यक्ति को देहपात की अनुमति नहीं है, उसे मृत्यु की उपस्थिति में मात्र समभाव रखने को ही कहा गया है। अत्यधिक वृद्धावस्था आदि की स्थिति में यह कहा गया है कि यदि मृत्यु सामने उपस्थित है, तो उसे देह-पोषण के प्रयत्नों को छोडकर देह के प्रति भी निर्ममत्व का भाव रखना चाहिए। संक्षेप में, बौद्ध और वैदिक-परम्परा में जहाँ व्यक्ति को ऐच्छिक-रूप से देहत्याग की अनुमति दी गई है, वहाँ जैन-परम्परा मात्र देह के प्रति निर्ममत्व भाव रखने को कहती है। इस प्रकार, वैदिक और बौद्ध -दोनों परम्पराओं से जेन-परम्परा का अन्तर हमने स्पष्ट किया। इसी प्रसंग में ईसाई-धर्म में भी जो मृत्यु-वरण की अनुमति है, उसके उदाहरणों को प्रस्तुत करते हुए उसकी भी जैन-परम्परा से भिन्नता स्पष्ट की है। __ प्रस्तुत शोध-प्रबन्ध का षष्ठ अध्याय प्राचीनाचार्यविरचित आराधना-पताका में आई समाधिमरण सम्बन्धी कथाओं के तुलनात्मक अध्ययन से सम्बन्धित है। इस अध्याय में हमने आराधना-पताका में उल्लेखित कथाओं का तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत किया है। जो कथाएँ इस अध्याय में वर्णित हैं; वे कथाएँ इस प्रकार है- स्कंधक ऋषि के पाँच सौ शिष्य, जो घाणी में पीले गए, किन्तु उन्होंने उस परिस्थिति में भी अपने समभाव से समाधिमरण को प्राप्त किया। गजसुखमाल ने सोमिल द्वारा सिर पर अंगारे रखे जाने पर भी समभाव से मोक्ष को प्राप्त किया। सनत्कुमार चक्रवर्ती उपसर्ग सहन कर सौधर्मेन्द्र हुए। अवंतिसुकुमाल ने कुतिया द्वारा देह-भक्षण करने पर भी समभाव रखा। युधिष्ठिरादि पांडुपुत्रों ने शत्रुजय-पर्वत पर द्विमासिक-संलेखना के द्वारा पादपोगमन-संथारे के साथ सिद्धि को पाया। इसी प्रकार, इसमें सुकौशल, धन्ना, शालिभद्र आदि के समाधिमरण की कथाओं का निर्देश है। धन्ना एवं शालिभद्र ने वैभारपर्वत पर एक मास की संलेखना की एवं पादपोगमन-संथारे के साथ सर्वार्थसिद्ध देवविमान में गए। इसी प्रकार, चिलातिपुत्र की कथा भी इसमें वर्णित है। उदायन विष को भी समभाव से पीकर सिद्ध हो गए। अर्णिकापुत्र उष्णपरीषह को तथा भद्रबाहु के चार शिष्य शीतपरीषह को समभावपूर्वक सहन कर समाधिमरण से देवलोक में गए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003609
Book TitleAradhanapataka me Samadhimaran ki Avadharna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPratibhashreeji, Sagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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