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________________ 214 अध्याय 8 उपसंहार आराधना - पताका जैन-धर्म के समाधिमरण सम्बन्धी साहित्य में एक प्राचीन स्तर का महत्वपूर्ण ग्रन्थ माना जाता है । सम्भवतः समाधिमरण की सम्पूर्ण प्रक्रिया को सुव्यवस्थित रूप से प्रस्तुत करने वाला श्वेताम्बर - परम्परा का यह प्राचीनतम ग्रन्थ है । यद्यपि इसके पूर्व चन्द्रवेध्यक, आतुरप्रत्याख्यान, महाप्रत्याख्यान, संस्तारक, मरणसमाधि, मरणविभक्ति आदि ग्रन्थों में समाधिमरण का उल्लेख मिलता है और तत्सम्बन्धी कुछ आदेश और निर्देश भी मिलते हैं, किन्तु ये सभी ग्रन्थ मूलतः उपदेशात्मक-शैली में लिखे गए हैं, इनमें समाधिमरण की सम्पूर्ण प्रक्रिया और तत्सम्बन्धी विधि-विधान और उनका क्रम आदि की उतनी व्यवस्थित चर्चा नहीं है, जितनी इस आराधना - पताका में है । साध्वी डॉ. प्रतिभा श्वेताम्बर आगमों में भी यद्यपि समाधिमरण सम्बन्धी कुछ निर्देश आचारांग के विमोक्ष नामक अष्टम अध्याय में तथा उत्तराध्ययनसूत्र के पाँचवें अध्याय में मिलते हैं, किन्तु ये अति संक्षिप्त हैं। समाधिमरण सम्बन्धी व्यवस्थित ग्रन्थ के रूप में दिगम्बर - परम्परा में जिस प्रकार 'भगवती - आराधना' नामक ग्रन्थ है, उसी प्रकार श्वेताम्बर - परम्परा में प्राचीन आचार्य विरचित आराधना-पताका है, यद्यपि भगवती–आराधना को 'पण्डित नाथूरामजी प्रेमी, डॉ. सागरमल जैन आदि ने श्वेताम्बरों और दिगम्बरों के मध्यवर्ती अचेल यापनीय - परम्परा का ग्रन्थ माना है । प्रस्तुत शोधप्रबन्ध में इस सम्बन्ध में मैंने कोई विशेष चर्चा नहीं की है । मेरा मानना मात्र इतना है कि समीक्ष्य ग्रन्थ प्राचीनाचार्यकृत आराधनापताका, भगवती आराधना के समानान्तर श्वेताम्बर - धारा का एक महत्वपूर्ण ग्रन्थ है । इस ग्रन्थ की अन्तिम प्रशस्ति में इसे आराधना - भगवती भी कहा गया है। इस आधार पर भगवती - आराधना और आराधना-भगवती में नाम की समरूपता भी प्रतीत होती है, अन्तर मात्र इतना है कि जहाँ भगवती - आराधना में 'भगवती' शब्द आराधना के पूर्व रखा गया है, वहीं प्रस्तुत समीक्ष्य ग्रन्थ को आराधना-भगवती कहकर भगवती शब्द आराधना के बाद रखा गया है। इससे इतना तो अवश्य लगता है कि दोनों ग्रन्थ समानान्तर काल के होंगे। Jain Education International इन दोनों ग्रन्थों में समाधिमरण की अवधारणा का हमें सुव्यवस्थित विवरण उपलब्ध हो जाता है। यहाँ यह ज्ञातव्य है कि श्वेताम्बर - परम्परा में इसी नाम का एक अन्य ग्रन्थ भी है, जो वीरभद्रकृ त है तथा दसवीं शती का ग्रन्थ है । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003609
Book TitleAradhanapataka me Samadhimaran ki Avadharna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPratibhashreeji, Sagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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