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________________ 204 साध्वी डॉ. प्रतिभा अध्याय 7 समाधिमरण की अवधारणा की वर्तमान परिप्रेक्ष्य में उपादेयता एक ओर, जहाँ जैन धर्म में समाधिमरण की परम्परा वर्तमान युग तक जीवित है, वहाँ दूसरी ओर से आत्महत्या अथवा प्रायोजित हत्या का रूप देकर उसके विरुद्ध भी बहुत कुछ जहर उगला जाता है। विगत वर्षों में समाचार-पत्रों में इस प्रकार के अनेक प्रकरण उछाले गए हैं और न्यायालयों में तत्सम्बन्धी वाद भी प्रस्तुत किए गए हैं, अतः आज यह प्रश्न पुनः विचारणीय हो गया है कि समाधिमरण को आत्महत्या या हत्या माना जाए अथवा उसे एक आध्यात्मिक-साधना के रूप में स्वीकार किया जाए। यह सत्य है कि जन्म के साथ मृत्यु की अपरिहार्यता रही हुई है। 'जातस्य ध्रुवो मृत्यु' - यह महावाक्य इसका प्रमाण है, जो मृत्यु की इस अपरिहार्यता को ही सिद्ध करता है, किन्तु फिर भी यह प्रश्न तो खड़ा हुआ ही है- क्या मनुष्य को जीने के समान 'मरने' का भी अधिकार है ? क्या आत्महत्या वैधानिक है ? प्राचीन भारतीय-परम्पराएँ और आधुनिक विधिशास्त्र इस बात को तो सर्वसम्मति से स्वीकार करते हैं कि व्यक्ति को जीवन जीने का अधिकार है। जैन-परम्परा ने भी इस बात को प्रारम्भ से ही स्वीकार किया है कि सभी जीव जीना चाहते हैं, किन्तु कोई भी मरना नहीं चाहता,' अतः जीने का अधिकार तो सामान्य रूप से मान्य किया जाता रहा है किन्तु मरने का अधिकार सामान्य रूप से मान्य नहीं रहा है और यही कारण है कि प्राचीनकाल में और आज भी विधिशास्त्र आत्महत्या को एक अपराध के रूप में ही देखते हैं। जैन-परम्परा में भी प्राचीनकाल से आत्महत्या को धर्मविरुद्ध ही माना है और इसलिए वह आत्महत्या का निषेध भी करती है। यहाँ यह विचारणीय बिन्द है कि क्या समाधिमरण आत्महत्या है? इस सन्दर्भ में सर्वप्रथम तुलनात्मक-दृष्टि से समाधिमरण और आत्महत्या के अन्तर को सम्यक् प्रकार से समझ लिया जाए। 'सवे जीवा वि इच्छन्ति, जीविउं न मरिज्जिउं। तम्हा पाण वहं घोरं निग्गन्था वज्जयंति णं ।। - दश्वैकालिक 6/11 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003609
Book TitleAradhanapataka me Samadhimaran ki Avadharna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPratibhashreeji, Sagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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