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________________ 202 साध्वी डॉ. प्रतिभा मनुष्य तो क्या, पशु-पक्षी तक उसके विषैले फुफकार से भयभीत रहते है। उसे अवसर मिलना चाहिए। उसकी फफकार में इतना बल है कि आकाश में उडता पक्षी तक खिंचकर नीचे चला आता है। वन के वृक्ष और वनस्पति तक उसके विष-प्रभाव से भस्म हो चुके हैं। ऐसा सर्प इस जंगल में रहता है, इसलिए आप इधर मत जाइए। हम आपको दूसरा रास्ता बता देते हैं, उधर से चले आओ।" महावीर ने चंडकौशिक सर्प की विकरालता के बारे में सुना तो उनके अन्तर में वात्सल्य भर आया। वे बोले- "वह सर्प तो मेरा मित्र है। मैं उसी के पास जा रहा हूँ।" ग्वाले देखते रह गए। महावीर आगे बढ़ गए। महावीर चलते हुए सर्प की बांबी के पास पहुंचे। वहाँ जाकर वे ध्यानस्थ हो गए। बांबी में रहे सर्प को मानव की गन्ध आई और वह फुफकारता हुआ बांबी से बाहर आया। उसने एक आदमी को अपनी बांबी के पास खड़ा पाया, तो उसके क्रोध का पार न रहा। सर्वप्रथम उसने महावीर पर अपनी विषैली फुफकार छोड़ी। चण्डकौशिक की फुफकार में ही इतना विष था कि जिसे वह छू लेती, वह मर जाता, पर महावीर पर उसका कोई प्रभाव न हुआ। सर्प ने अपनी दूसरी शक्ति का प्रयोग किया, वह शक्ति थी दृष्टिविष। विष-दृष्टि से निरन्तर वह महावीर को देखने लगा और देखता रहा। जब भी सर्प किसी दूरस्थ प्राणी को इस तरह से देखता था, तो वह कुछ ही क्षणों में मूर्छित होकर गिर पड़ता था, ऐसा विष था उसकी दृष्टि में, परन्तु महावीर पर इसका भी कोई असर न हुआ। अब चण्डकौशिक सर्प के क्रोध की सीमा न रही। उसने अपनी तीसरी शक्ति का प्रयोग किया। क्रोध में भरकर ध्यानलीन महावीर के चरणों में उसने डंक मारा इस बार सर्प के विषैले दाँत महावीर के पांव के अंगूठे में गड़ गए। महावीर के अंगूठे से रक्त के स्थान पर दूध बहने लगा। सर्प के आश्चर्य का अन्त न रहा। वह हतप्रभ हो गया कि यह कैसा देवपुरुष है। रक्त तो सभी मानवों के शरीर में बहता है, पर यह महापुरुष कौन है, जिसके शरीर से रक्त के स्थान पर दूध बह रहा है ? महावीर ने करुणा का अमृत-वर्षण करते हुए कहा- “सर्पराज! बोधि को प्राप्त करो! बोधि को प्राप्त करो !! बोधि को प्राप्त करो!!! तुम क्रोध का परिणाम देख चुके हो ? तुम अपना अतीत याद करो। तुम्हारा यह स्वरूप क्यों बना है? तुम इस योनि में क्यों आए हो। अब इस स्थिति को त्याग दो। चण्डकौशिक सर्प महावीर का उद्बोधन सुन प्रतिदोधित हुआ। उसे जातिस्मरण ज्ञान हो गया। जातिस्मरण-ज्ञान में चण्डकौशिक ने अपने पूर्वजन्म देखे। वह देखने लगा कि अतीत के एक जन्म में वह मुनि के पूज्य पद पर आसीन था। उसका नाम गोभद्र था। प्रमत्तता से गमन करते हुए गोभद्र मुनि के पाँव के नीचे एक मेंढक आ गया। मेंढ़क मर गया। मुनि को पता भी न चला। पीछे आ रहे शिष्य ने यह सब देख लिया था। उसने गुरुजी को स्मरण कराया तथा आलोचना करने को कहा। गोभद्र मुनि को क्रोध आ गया। वे बोले- "तुझे ज्यादा दिखाई पडता है। मझे तो कहीं नहीं दीखा। वहाँ पडा होगा रास्ते में पहले से ही मरा हआ। मैं मेंढ़क क्यों मारता?" शिष्य मौन हो गया। रात्री प्रतिक्रमण की वेला में शिष्य ने पुनः गुरु को स्मरण कराया - "गुरुदेव! आप आलोचना कर लें।" गोभद्र मुनि से यह सहन न हुआ। उन्होंने अपना डण्डा उठाया और शिष्य को मारने दौड़े। जैसे ही वे आगे बढ़े कि खम्भे से टकरा गए और वहीं उनकी मृत्यु हो गई। सर्पराज चण्डकौशिक अपने ज्ञान में आगे देखता है- मैं गोभद्र मुनि की देह को छोड़कर अग्निकुमार देव बना। वहाँ भी मेरा क्रोध समाप्त नहीं हो पाया। देवायु पूर्ण कर फिर मैं कौशिक For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.003609
Book TitleAradhanapataka me Samadhimaran ki Avadharna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPratibhashreeji, Sagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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