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________________ 196 साध्वी डॉ. प्रतिमा के प्रभाव से दूर-दूर तक की स्थिति को प्रत्यक्ष देखा और जाना जा सकता है। आनन्द भी छहों दिशाओं की दूरातिदूर स्थितियों को देखने-जानने लगा। यह घटना विक्रम पूर्व पाँचवीं शताब्दी की है। उन्हीं दिनों भगवान महावीर पुनः वाणिज्यग्राम में पधारे और श्रमण परिवार सहित द्युतिपलाश उद्यान में ठहरे। भगवान् के प्रथम गणधर इन्द्रभूति गौतम भिक्षा के लिए गाँव में गए, तो उन्होंने लोगों के मुँह से श्रावक श्रेष्ठ आनन्द के बारे में सुना। भगवान ने भक्त आनन्द को देखने के विचार से गौतम ज्ञातकुल की पौषधशाला में पहुँचे। श्रमणोपासक आनन्द ने गौतम की वन्दना कर स्वागत किया और कहा- "भगवन्! आपके पधारने से मैं धन्य हो गया। मेरी एक जिज्ञासा है, वह यह कि क्या गृहस्थ को भी अवधिज्ञान हो सकता है ?" . - "हाँ, आनन्द! हो सकता है।" गौतम ने कहा- "श्रावक को भी अवधिज्ञान होता है, तो मुझे भी अवधिज्ञान हआ है। अवधिज्ञान के बल पर मैं पर्व पश्चिम एवं दक्षिण दिशाओं के भीतर पाँच सौ योजन तक देख सकता हूँ, इस तरह उत्तर दिशा में चूल्ल हिमवान पर्वत तक, उर्ध्वलोक में सौधर्मलोक तक और अधोदिशा में लोलुपच्चय नरकावास तक की स्थिति देख जान सकता हूँ।" आनन्द की बात सनकर गणधर गौतम पहले तो चौंके। फिर बोले- "आनन्द। श्रावक को अवधिज्ञान होता है, यह तो ठीक है, पर जैसा तुमने अपने बारे में कहा है, वैसा दूरगामी अवधिज्ञान श्रावक को नहीं होता। भ्रान्तिवश तुमने असत्य बोला है, अतः तुम्हें अपने मिथ्या कथन की आलोचना और प्रायश्चित्त करना चाहिए।" विनयमूर्ति आनन्द ने निश्चय के लहजे में कहा- " भन्ते! भगवान महावीर के शासन में क्या सत्यभाषण की भी आलोचना की जाती है?" "नहीं. ऐसा तो नहीं होता। सत्य कथन का प्रायश्चित्त भला क्यों होगा ?" गौतम ने कहा- "लेकिन तुम्हारे पूछने का अभिप्राय क्या है ? तुम यह सब क्यों पूछ रहे हो ?" "यदि मिथ्याभाषण का प्रायश्चित्त किया जाता है, तो भगवन् वह आपको ही करना है।" गौतम ने आनन्द की दृढ़ता देखी, तो सन्देह में पड़ गए। उनका यह सन्देह अब भगवान् महावीर ही मिटा सकते थे। भिक्षा लेकर वे द्युतिपलाश उद्यान में गए और आगन्द श्रावक से जो बातचीत हुई थी, वह ज्यों की त्यों गौतम ने महावीर को बता दी। सब कुछ सुनकर सर्वज्ञ महावीर ने कहा- "गौतम! आनन्द का कथन सत्य है। तुमने उसके सत्य की उपेक्षा की है, अतः तुम आनन्द से जाकर क्षमा माँगो। क्योंकि आत्म साधक को छोटे बड़े का भेद भुलाकर सत्य का पुजारी होना चाहिए। अपनी भूल पर गौतम पछताये। वे तुरन्त आनन्द के पास पहुँचे और विनत होकर बोले- "श्रावक श्रेष्ठ! मुझे क्षमा करो, तुम्हारे सत्य कथन को मैने मिथ्या कहकर धर्म और सत्य की अवहेलना की, अतः मैं नत होकर तुमसे क्षमा माँगता हूँ।" आनन्द की आँखें गीली हो गई। उसने देखा कि भगवान के निर्ग्रन्थ शासन में सत्य का इतना सम्मान है कि एक गणधर मुनि एक श्रावक से क्षमा माँग रहा है। गद्गद् होकर आनन्द ने गौतम को विदा किया। आनन्द गाथापति ने बीस वर्ष तक साधना का जीवन बिताया, फिर समाधिपूर्वक देह त्यागकर सौधर्मकल्प अरूणाभ विमान में देवरूप में जन्म लिया। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003609
Book TitleAradhanapataka me Samadhimaran ki Avadharna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPratibhashreeji, Sagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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