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________________ साध्वी डॉ. प्रतिभा जो मृत्यु से भयभीत हो और जिसके मन में शरीर और इन्द्रिय-भोगों की आसक्ति रही हुई हो, उसे समाधिमरण के योग्य नहीं मानना चाहिए, अतः समाधिमरण के इच्छुक साधक का परीक्षण आवश्यक है। इसी क्रम में तीसरे निर्यापक द्वार (गाथा 29-43) में समाधिमरण में सहयोग देने वाले निर्यापकों की योग्यता का वर्णन किया गया है। जैन-परम्परा में निर्यापक उसे कहा जाता है, जो समाधिमरण करने वाले साधक की सेवा परिचर्या में निःमग्न होता है। चूंकि अयोग्य निर्यापकों के कारण समाधिकरण के साधक में भी असमाधि का भाव उत्पन्न हो जाता है, अतः निर्यापकों की क्षमता का परीक्षण भी आवश्यक है। प्रस्तुत कृति के चौथे योग्यताद्वार (गाथा 44-47) के प्रारम्भ में यह बताया गया है कि समाधिमरण के इच्छुक साधक में क्या-क्या योग्यताएं होना चाहिए। उन योग्यताओं का निर्देश निम्न रूप में है जो निर्वाण-सुख चाहता हो, विषय-विकारों का त्यागी हो, पारिवारिक-परिजनों से निर्मोही हो, अनेक प्रकार के तप द्वारा शरीर को तपाने वाला हो, इहलोक-परलौकिक-आकांक्षा से रहित हो, शरीर की शुश्रूषा से रहित हो, मरणभय से उपरत और महान् विवेक से युक्त हो, मुक्ति की तीव्र अभिलाषा वाला हो, ऐसा क्षपकमुनि या श्रावक आराधना के योग्य होता है। प्रस्तुत कृति के पांचवें अगीतार्थ-द्वार (गाथा 48-63) के प्रारम्भ में यह बताया गया है कि अगीतार्थ गुरु के सान्निध्य में समाधिमरण धारण नहीं करना चाहिए, क्योंकि जो गीतार्थ नहीं है, जो देश, काल व परिस्थितियों का ज्ञाता नहीं है, वह सम्यक् प्रकार से समाधिमरण करवाने में समर्थ नहीं होता है। गीतार्थ के लिए आवश्यक है कि वह मानवता, शास्त्रज्ञान, धर्मश्रद्धा तथा तपसंयम में पुरुषार्थ से युक्त हो, जबकि अगीतार्थ में ये योग्यताएं नहीं होती है। अगीतार्थ-निर्यापक, क्षपक को क्षुधा-पिपासा से पीड़ित होने पर जब वह रात्रि में जल आदि की याचना करता है, तो उसे छोड़कर चला जाता है। फलतः, क्षपक भी पीड़ावश आर्त होकर दीक्षा त्यागकर पुनः गृहस्थ होने की सोचता है, अतः आर्तध्यान से युक्त होने पर मरकर तिर्यच, नरक आदि गतियों में जन्म लेता है। सत्य यह है कि किस परिस्थिति-विशेष में किस प्रकार से आचरण करना चाहिए- इस बात से अज्ञात होने के कारण अगीतार्थ-निर्यापक क्षपक का अहित ही करता है। इसके विपरीत, जो गीतार्थ-निर्यापक होता है, वह विशिष्ट परिस्थिति में धर्म और शास्त्र का आधार लेकर योग्य मार्ग निकाल लेता है न तो क्षपक का अहित होता है और न ही धर्मसंघ की निन्दा होती है, इसलिए प्रस्तुत क ति में यह बताया गया है कि गीतार्थ गुरु की खोज में एक-दो नहीं, चाहे बारह वर्ष तक की प्रतीक्षा करना पड़े, तो भी करना चाहिए और अगीतार्थ के चरणों में तो कदापि समाधिमरण ग्रहण नहीं करना चाहिए। गीतार्थ वह व्यक्ति होता है, जो क्षपक की इच्छा का सम्पादन करके और उसका देह-परिकर्म करके, अथवा अन्य उपायों द्वारा उसकी असमाधि को दूर कर उसके समाधिमरण में सहायक होता है। गीतार्थ-निर्यापक प्रासुक-द्रव्य, क्षपक का हित, उसके उदय में आए हुए कर्म तथा वात-पित्त और कफ के उपचार को जानकर, विशिष्ट परिस्थिति में उचित शिक्षा न या भोजन देकर क्षपक को क्षधा एवं पिपासा से क्लान्त नहीं होने देता है. इसलिए प्रस्तुत कृति में यह बताया है कि चाहे दीर्घकाल तक योग्य निर्यापक की प्रतीक्षा करना पड़े, किन्तु कभी भी अयोग्य निर्यापक के सान्निध्य में समाधिमरण ग्रहण नहीं करना चाहिए। __ प्रस्तुत कृति के छठवें असंविग्नद्वार (गाथा 64-70) के प्रारम्भ में यह बताया गया है कि समाधिमरण के इच्छुक साधक को गीतार्थ-गुरु मिल जाए, परन्तु वह गीतार्थ-मुनि असंविग्न, यानी शुद्ध आचरण वाला न हो, तो उसके सान्निध्य में समाधिमरण नहीं करना चाहिए, क्योंकि उसके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003609
Book TitleAradhanapataka me Samadhimaran ki Avadharna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPratibhashreeji, Sagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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