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________________ प्राचीनाचार्य विरचित आराधनापताका में समाधिमरण की अवधारणा का समालोचनात्मक अध्ययन कुरुक्षेत्र की राजधानी हस्तिनापुर के महाराज अश्वसेन की रानी सहदेवी ने चक्रवर्ती पदसूचक चौदह महास्वप्न देखकर पुत्ररत्न को जन्म दिया। जन्मोत्सव करके उसका 'सनत्कुमार' नाम रखा गया। कुमार विद्याध्ययन में निपुण हुआ । कुमार के मित्र महेन्द्रसिंह से उसकी पराक्रम-गाथा सुनकर महाराजा बहुत प्रसन्न हुए । अवसर देखकर कुमार का राज्याभिषेक कर दिया गया व महेन्द्रसिंह को सेनापति बना दिया गया। फिर, राज्य की धुरा कुमार के हाथों में सौंपकर राजा-रानी ने आत्मकल्याणार्थ दीक्षा लेकर मानव-जन्म को सफल किया। इधर सनत्कुमार की आयुधशाला में चक्ररत्न प्रकट हुआ, तो राजा दिग्विजय यात्रा को चल दिए । सम्पूर्ण भरतखण्ड पर उन्होंने अपनी विजय की मोहर लगा दी और वे चक्रवर्ती बने। अधीनस्थ राजाओं ने मिलकर चक्रवर्ती पद का अभिषेक कर उन्हें इस अवसर्पिणीकाल के चौथे चक्रवर्ती होने की घोषणा की। एक शकेन्द्र की सुधर्मासभा में आए हुए ईशान - कल्प के संगमदेव की देहप्रभा को देखकर किसी देव ने प्रश्न किया कि ऐसा उत्कृष्ट रूप और देहप्रभा से युक्त अन्य व्यक्ति भी संसार में कोई है क्या ? इस पर शकेन्द्र ने कहा- "जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र में कुरुक्षेत्र के अन्तर्गत हस्तिनापुर नगर में कुरुवंशी चक्रवर्ती सम्राट महाराजा सनत्कुमार की देहप्रभा और रूप के सामने यह कुछ भी नहीं है ।" विजय और वैजयन्त नामक दो देव इन्द्र की बात का खण्डन करने के लिए ब्राह्मण का रूप बनाकर हस्तिनापुर आए तथा स्नानादि से पूर्व तेलमर्दन, उबटन कराते हुए चक्रवर्ती के रूप की देहप्रभा को देखकर विस्मित हुए। वे देव एकटक देखते ही रह गए। उन्होंने शकेन्द्र की बात पर विश्वास किया। दोनों ब्राह्मणों को इस विस्मित अवस्था में देखकर सनत्कुमार ने पूछा - "आप कौन हैं ? किस प्रयोजन से यहाँ आए हैं ?" देवों ने कहा- "हम तो आपके रूप को देखने आए हैं" - रूपगर्वित होकर चक्रवर्ती बोले- जब मैं वस्त्राभूषणों से सजधजकर राजसिंहासन पर बैठूं तब मेरे रूप और देह की प्रभा को देखना। अभी तो क्या रूप है ?" कहावत है- एक नूर आदमी, हजार नूर कपड़ा, लाख नूर गहना, करोड़ नूर नखरा, तदनुसार ब्राह्मणरूपी देवों ने राजसभा में आने का वचन दिया। चक्रवर्ती ने स्नान किया और अन्य दिनों की अपेक्षा आज विशेष रूप से श्रृंगार कर राज्यसभा में आए। फिर दोनों ब्राह्मणों को अपना रूप दिखाने हेतु बुलवाया गया। राजा ने विचार किया कि वे ब्राह्मण अब और अधिक मेरे रूप की प्रशंसा करेंगे। उसे अपने रूप पर अभिमान आ गया। दोनों ब्राह्मणरूपी देवों ने वस्त्रालंकारो और आभूषणों से विभूषित चक्रवर्ती को सिंहासन पर विराजमान देखा, तो नकारात्मक ढंग से सिर हिलाया । चक्रवर्ती के पूछने पर उन्होंने कहा- जो रूप और शरीर की आभा हमने पहले देखी थी, वैसी अब नहीं है और विश्वास न हो, तो आप पीकदानी में थूक कर देख लीजिए। तुरन्त पीकदानी मंगवाकर उसमें चक्रवर्ती ने थुंका व ध्यान से निरीक्षण किया तो असंख्यात छोटे-छोटे कीड़े कुलबुलाते हुए नजर आए। तीव्र दुर्गन्ध चारों और फैल गई। चक्रवर्ती ने अपने शरीर पर नजर डाली, तो उसे वास्तव में अपने शरीर की आभा फीकी-सी लगी । यह सब देखते ही चक्रवर्ती एकदम चिन्तन के सागर में गोता लगाने लगे। ओह! यह रूप-सौन्दर्य, देह - प्रभा, जिस पर मैं इतना गर्व करता था, यह सब क्षणिक है, अल्प समय में ही यह इतना निस्तेज और कुरूप हो गया। इस शरीर का पालन-पोषण करने में भी मैंने अनेकों तरह के पाप किए, फिर भी यह दगा दे गया। अब तक इस नश्वर शरीर से भिन्न जो अमर आत्मा है, उसकी तरफ मैंने बिल्कुल ध्यान ही नहीं दिया। अब ऐसा कुछ करना पड़ेगा, जिससे आत्मा की सुन्दरता निखरे और दोबारा इस शरीर में आकर इस तरह धोखा देने वाली नश्वर देह की सेवा न करना पड़े। ज्ञानी भगवन्तों के अनुसार इस शरीर में साढ़े तीन करोड़ रोम हैं। प्रत्येक रोम में पौने दो - दो रोग हैं, अर्थात् यह शरीर पांच करोड़ बीमारियों का घर है । ऐसे शरीर पर क्या गर्व करना ? इससे Jain Education International 177 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003609
Book TitleAradhanapataka me Samadhimaran ki Avadharna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPratibhashreeji, Sagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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