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डॉ. सागरमल जैन की यह मान्यता है कि "यह ग्रन्थ भगवती - आराधना के समकालीन या उससे कुछ परवर्ती हो सकता है। फिर भी इतना तो निश्चित है कि वह वीरभद्रकृत आराधना-पताका से प्राचीन है। डॉ. सागरमल जैन इस ग्रन्थ को पांचवीं से सातवीं शताब्दी के मध्य ही स्थापित करते हैं। प्राचीनाचार्यकृत आराधना - पताका की अन्तिम ग्रन्थ- प्रशस्ति की गाथा 927 एवं 928 में इसे आराधना- भगवती कहा गया है और उसके पश्चात् गाथा 429 में इसे मरणसमाधि कहा गया है। इससे ऐसा लगता है कि यह ग्रन्थ यापनीय - परम्परा के भगवती - आराधना एवं श्वेताम्बर - परम्परा की मरणसमाधि का समकालीन होना चाहिए। यद्यपि ग्रन्थकार ने कहीं भी अपना स्पष्ट नामोल्लेख नहीं किया है, किन्तु ग्रन्थ- प्रशस्ति की अन्तिम गाथाओं को देखने से ऐसा लगता है कि इस ग्रन्थ के रचनाकार त्रिलोकचन्द्र अथवा लक्ष्मीनिवास नामक मुनि हो सकते हैं, क्योंकि इस ग्रन्थ की 931वीं गाथा में तिलोयचंदुज्जलं एवं 932वीं गाथा में लच्छीनिवास - ऐसा स्पष्ट नाम मिलता है। प्राचीनकाल में यह परम्परा रही है कि व्यक्ति या लेखक अपना नाम केवल संकेत के रूप में ही उल्लेखित करता था, अतः यह स्पष्ट है कि यह कृति ईसा की छठवीं शताब्दी में किसी श्वेताम्बर आचार्य द्वारा ही संकलित की गई है। रचनाकार के नाम के सम्बन्ध में हम बहुत स्पष्ट नहीं हैं, फिर भी जो अनुमान लगाया जा सकता है, उसके आधार पर रचनाकार का नाम तिलोयचन्द या लच्छी - निवास में से एक हो सकता है। वीरभद्रकृत आराधना-पताका में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि पूर्व पुरुषों द्वारा क्रम से आगत इस ग्रन्थ को संक्षेप में कहूंगा, अतः यह निश्चित है कि यह कृति वीरभद्रकृत आराधना पताका से पूर्व की ही है, फिर भी इतना निश्चित है कि ग्रन्थकार को भगवती - आराधना और मरणसमाधि- ये दोनों ग्रन्थ ज्ञात थे और हो सकता है कि इन्हीं के आधार पर उन्होंने इस ग्रन्थ की रचना की हो। ' प्राचीनाचार्य विरचित आराधना-पताका की विषयवस्तु'
प्राचीनाचार्यकृत आराहणा पडागा ( आराधना - पताका) में सर्वप्रथम भगवान् महावीर को नमस्कार करके भवसागर से पार होने के लिए जहाज के समान पर्यन्त - आराधना की रचना करने का निर्देश किया गया है। यहाँ पर्यन्ताराधना का अर्थ जीवन के अन्तिम समय में की जाने वाली आराधना से है, जिसे हम सामान्यतया समाधिमरण के नाम से जानते हैं। इसके पश्चात् इस ग्रन्थ में उत्तमार्थ, अर्थात् मुक्ति को प्राप्त करने के लिए आराधना - विधि का निम्न बत्तीस द्वारों में विवेचन किया गया है
द्वारों के नाम 1. संलेखना 2. परीक्षा 3. निर्यामक 4. योग्यता 5. अगीतार्थ 6. असंविज्ञ 7. निर्जरा 8. स्थान 9. प्रशस्त - वसति 10. संस्तारक 11. चरमद्रव्य - दापना 12. समाधिपान 13. गणपतिक्षपक का गणनिसर्ग 14. चैत्यवंदन 15 आलोचना 16 व्रतोच्चारण 17. चतुःशरण 18. दुष्कृतगर्हा 19. सुकृ तानुमोदना 20. जीवक्षमापना 21. स्वजनक्षमापना 22 संघक्षमापना 23. जिनवरादिक्षमापना 24. आशतना प्रतिक्रमण 25. कायोत्सर्ग 26. शक्रस्तव 27. पापस्थानों का त्यांग 28 अनशन 29. अनुशिष्टि (शिक्षा) 30. सार कवच 31. नमस्कार तथा 32. आराधनाफल ।
साध्वी डॉ. प्रतिमा
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1 डॉ. सागरमल जैन - प्राचीन आचार्यकृत आराधना पताकी की अप्रकाशित भूमिका के आधार पर
2 आराधनापताका की विषयवस्तु की समग्र चर्चा मूलगाथाओं के अनुवाद पर आधारित है । यह अनुवाद अभी अप्रकाशित है, अनुवादक डॉ. कर्नल एस. बया हैं ।
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आराधनापताका, 2-7
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