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साध्वी डॉ. प्रतिभा
का स्थान आगम और आगमिक-व्याख्याओं में नियुक्ति और भाष्य के बाद भी माना जा सकता है। इसके नामकरण के साथ जो प्राचीन आचार्य विरचित शब्द जोड़ा गया है, वह इतना तो अवश्य बताता है कि यह वीरभद्रकृत आराधना-पताका के पूर्व का ग्रन्थ है। वीरभद्र का काल विद्वानों ने दसवीं शताब्दी के लगभग माना है, अतः प्राचीनाचार्य विरचित इस आराधना-पताका की रचना छठवीं शताब्दी के पश्चात् और दसवीं शताब्दी से पूर्व हुई होगी। इसके संभावित रचनाकाल की चर्चा हमने आगे की है।
जहाँ तक समाधिमरण से सम्बन्धित जैन-साहित्य का प्रश्न है, यह स्पष्ट है कि प्राचीनकाल से ही आगमों में इसके निर्देश पाए जाते हैं। आचारांग के प्रथम श्रुतस्कंध में तथा उत्तराध्ययन के पाँचवें अध्ययन में इसका स्पष्ट उल्लेख होने से यह तो स्पष्ट है कि जैन धर्म में समाधिमरण की परम्परा भगवान् महावीर के समय से या उसके भी पूर्व प्रचलित रही है। जहाँ तक समाधिमरण से सम्बन्धित स्वतन्त्र ग्रन्थों की रचना का प्रश्न है, आतुरप्रत्याख्यान, महाप्रत्याख्यान, संस्तारक आदि ग्रन्थ प्राचीन अवश्य है, किन्तु इनमें इस विषय का कहीं विस्तृत विवेचन नहीं मिलता। संभवतः, समाधिमरण- सम्बन्धी सात-आठ छोटे-छोटे ग्रन्थों को मिलाकर सर्वप्रथम मरणसमाधि नामक ग्रन्थ की रचना हुई, किन्तु यह भी एक संग्रह ग्रन्थ ही था। हमें ऐसा लगता है कि समाधिमरणसम्बन्धी उसकी सम्पूर्ण विधि को आलेखित करने वाला श्वेताम्बर-परम्परा में यदि कोई प्राचीन ग्रन्थ लिखा गया होगा, तो वह प्राचीनाचार्यकृत यह आराधना पताका ही है।
दिगम्बर-परम्परा में भगवती-आराधना का नाम सर्वविश्रत है, किन्त इस ग्रन्थ के नाम आदि को लेकर जो प्राचीनाचार्यकृत आराधना-पताका से समरुपता है, वह इतना तो अवश्य सिद्ध करती है कि प्राचीनाचार्यकृत आराधना-पताका लगभग उसके समाकालीन या किंचित् पूर्ववर्ती रही होगी।
दोनों में नाम-साम्य, विषय-साम्य आदि को देखकर हमारा यह अनुमान सम्यक ही प्रतीत होता है। इसकी भी विशेष चर्चा हमने इसी अध्याय में आगे की है। यह स्पष्ट है कि प्रस्तुत प्राचीनाचार्यकृत आराधना-पताका जैनों की समाधिमरण-सम्बन्धी अवधारणा का एक प्राचीन ग्रन्थ है और यदि हमें कहना हो, तो इतना अवश्य कह सकते हैं कि दिगम्बर-परम्परा में भगवती-आराधना का जो स्थान है, वही स्थान श्वेताम्बर-परम्परा में इस प्राचीनाचार्य विरचित आराधना-पताका का है। आराधना-पताका के रचनाकार एवं उनका परम्परा-काल
प्राचीनाचार्यकृत आराधना-पताका मूलतः जैनधर्म में उल्लेखित समाधिमरण की साधना से सम्बन्धित है। जैन-परम्परा के आगम-साहित्य में आचारांग, उत्तराध्ययन आदि में समाधिमरण-सम्बन्धी उल्लेख और उसकी संक्षिप्त विधि भी दी गई है। उत्तराध्ययनसत्र के पांचवें अध्याय की विषयवस्तु पूर्णतः समाधिमरण से सम्बन्धित है। इसी प्रकार, उत्तराध्ययनसूत्र के छत्तीसवें अध्याय के अंत में भी समाधिमरण-सम्बन्धी विधि का उल्लेख है। इसमें मुख्यतया समाधि के तीन प्रकार- उत्कृष्ट, मध्यम और जघन्य बताते हुए उनके काल तथा विधि की चर्चा की गई है। इसी प्रकार, आचारांसूत्र में भक्तप्रत्याख्यान, इंगितमरण और पादपोगमन-मरण के रूप में समाधिमरण की संक्षिप्त चर्चा भी मिलती है, किन्तु आगमिक-ग्रन्थों में ये चर्चाएं संक्षिप्त रूप में ही मिलती हैं और समाधिमरण-सम्बन्धी विधि-विधान का उनमें कोई विस्तत विवेचन नहीं है. जबकि आराधना-पताका मूलतः समाधिमरण के स्वरूप एवं तत्सम्बन्धी विधि को विस्तार से बताने वाला एक स्वतन्त्र ग्रन्थ है। इस प्रकार यह स्पष्ट है कि आराधना-पताका का मूलभूत प्रयोजन समाधिमरण के स्वरूप और विधि की चर्चा करना ही है।
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