SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 150
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 136 साध्वी डॉ. प्रतिभा । इसके पश्चात् बताया गया है कि आत्मशुद्धि का साधक क्षपक इन अतिचारों की आलोचना करे, जैसे- मैंने समकितधारी आचार्य, उपाध्याय, श्रमण-श्रमणियों, श्रावक-श्राविकाओं, अथवा देव-देवियों का एवं जिनबिम्ब आदि के प्रति जो भी अवज्ञा व प्रतिकूल कार्य किया हो, जिनमन्दिर की आशातना की हो, भोगों के प्रति आसक्ति को नहीं तोड़ा हो, तो उन सभी की आलोचना करता पुनः, आगे बताया गया है कि समाधि को चाहने वाला क्षपक सोचे कि मैंने पांच समिति, तीन गुप्ति का पालन न किया हो, मूलगुण, उत्तरगुण में दोष लगा हो, राग-द्वेष के वशीभूत होकर मेरे द्वारा पृथ्वी, कायादि पाँच एकेन्द्रिय जीवों, द्वीन्द्रिय', त्रीन्द्रिय, चौरेन्द्रिय, पन्चेन्द्रिय तथा समूर्छिम एवं गर्भज मनुष्यों को आघात लगाया हो, प्रगाढ़ परिपावना दी हो, उपद्रव किया हो, तो उस सबकी आलोचना करता हूँ। इसी प्रकार, पांचों महाव्रत एवं रात्रिभोजनविरमण-व्रत में कोई भी दोष लगा हो, तो उसकी भी मैं आलोचना करता हूँ। आगे तप के विषय में कहा गया है कि क्षपक यह भी सोचे कि मैंने प्रमाद के कारण बारह प्रकार के तप नहीं किए हों, अविधिपूर्वक किए हो, तो उसकी आलोचना करता हूँ। आगे, वीर्याचारातिचारालोचना-द्वार में यह बताया गया है कि क्षपक को अपने मन में यह चिन्तन करना चाहिए कि यदि पूर्व में जिन भगवान् द्वारा प्रतिपादित मुक्ति के मार्ग की साधना के लिए मैंने पराक्रम नहीं किया हो, तो मैं उसकी भी आलोचना करता हूँ।' श्रावक भी यदि समाधिमरण ग्रहण करने का इच्छुक है, तो वह भी पांच अणुव्रतों, तीन गुणव्रतों एवं चार शिक्षाव्रतों में जो-जो अतिचार लगे हों, उनकी आलोचना करे। इसी प्रकार, मुनि-क्षपक भी पांच महाव्रतों एवं मूलगुणों, उत्तरगुणों में तथा रात्रिभोजनविरमण-व्रत में जो कोई दोष लगा हो, तो उनकी सम्यक आलोचना करे। वह क्षपक आलोचना करते समय इस प्रकार कहे- मैं मूढ़मति हूं, मैं छद्मस्थ हूं, 1 तह सम्मत्तधराणं जिण-सिद्धाऽऽयरिय-वायगाणं च। समण-समणीणं सावय-सड्ढीणं देव-देवीणं।। - वही- 182 सम्मत्त कारणाण य जिणहर-जिणबिंब-रहवराईणं। जमिह अवन्ना- पडिणीययाइ विहियं तमालोए।। - वही - 183 जं पंचसु समिईसुं तिसु गुत्तीसु पमायदोसेणं। वितहासेवणमिण्हिं तस्स पव्वज्जामि पच्छित्तं।। - वही -186 3 पाणाइवाए एगिंदियाण पुढवाइयाण पंचण्हं। किमि-जलुग-अलस-पूयरपमुहाण बिइंदियाणं तु।। - वही - 187 जलयर-थलयर-रवहयर-उर भुयसप्पाण तिरिपणिंदीणं। सुमुच्छि-मगठमाणं मणुयाणं वि राग दोसाओ।। - वही -189 उत्तरगुणाण पुण पिंडसोहिमाईण कहवि जं किंचिं। खंडिय विराहियं वा आलोएमी तयं सव्वं ।। - आराधनापताका - 196 'बारसविहम्मि वि तवे पमाइयं जं मए समत्थेणं। अविहीए वा विहियं जं पि तवो तं पि आलोए।। - वही - 198 'आराधनापताका -द्वार- 15 - गाथा-199 * आराधनापताका -द्वार- 15 - गाथा- 201 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003609
Book TitleAradhanapataka me Samadhimaran ki Avadharna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPratibhashreeji, Sagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy