SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 6
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पुरोवाक् युगों से मानव-मस्तिष्क इस प्रश्न का समाधान खोजता रहा है कि उसके जीवन का परम श्रेय क्या है ? मानवीय-चिन्तन ने इससन्दर्भ में जो-जो उत्तरसुझाए, उन्हीं से समग्र पूर्व एवं पश्चिम के आचार-दर्शनों का निर्माण हुआ है, किन्तु देश, काल, परिस्थिति एवं व्यक्तिगत विभिन्नताओं के कारण जो भिन्न-भिन्न उत्तर मानव-मस्तिष्क में प्रकटित हुए, उनसे अलग-अलग आचार-दर्शनों का जन्म हुआ। आचार के सम्बन्ध में इन विभिन्न दृष्टिकोणों की उपस्थिति ने चिन्तनशील मानव-मस्तिष्क के सामने एक नई समस्या प्रस्तुत की कि आचार सम्बन्धी इन विभिन्न विचार-परम्पराओं में सत्य के अधिक निकट कौन है? फलस्वरूप, उन सबका सुव्यवस्थित रूप में तुलनात्मक और समालोचनात्मक अध्ययन आवश्यक हुआ, ताकि उनके गुण-दोषों की समीक्षा की जा सके और मानवीय जीवनप्रणाली की दृष्टि से उनका समुचित मूल्यांकन किया जा सके। भारत में तुलनात्मक अध्ययन की स्थिति ___पाश्चात्य नैतिक-विचारणाओं के सन्दर्भ में ऐसा प्रयास बहुत पहले से होता रहा है और वर्तमान युग तक वह काफी व्यवस्थित और विकसित हो गया है, लेकिन जहाँ तक भारतीय नैतिक विचार-परम्परा का प्रश्न है, यह पारस्परिक तुलनात्मक और समीक्षात्मक अध्ययन अधिक गहराई से नहीं हो पाया है। जो कुछ थोड़ा-बहुत हुआ, वह मात्र दार्शनिक आलोचनाओं अथवा पारस्परिक छींटाकशी की दृष्टि से हुआ। प्रत्येक नैतिक-परम्परा की आलोचना अपनी श्रेष्ठता के प्रतिपादन एवं विपक्ष की हीनता के प्रदर्शन के निमित्त की गई, जिसमें वास्तविकता को समझने का प्रयास नहीं होकर मात्र मताग्रह और दुराग्रह ही अधिक था। इसी कारण, कभी-कभी अपने विपक्ष के सिद्धान्त को इतने भ्रान्तरूप में प्रस्तुत किया गया कि जो उसकी सैद्धान्तिक-मान्यताओं से फलित ही नहीं होता है। सिद्धान्तों की मूलात्मा को समझने का प्रयास ही नहीं किया गया, वरन् उसके बाह्य कलेवर का हीनतापूर्ण विश्लेषण-मात्र किया गया। जैनागम सूत्रकृतांग में बौद्ध-दृष्टिकोण को और बौद्धागम अंगुत्तरनिकाय एवं मज्झिमनिकाय में जैन दृष्टिकोण को जिस रूप में प्रस्तुत किया गया है, वह इस बात का पर्याप्त प्रमाण है। यह तो हमारा सबसे बड़ा दुर्भाग्य ही कहना चाहिए कि साम्प्रदायिक-व्यामोह के कारण हमने विभिन्न साम्प्रदायिक नैतिक मान्यताओं के मध्य रही हुई एकरूपता को प्रकट करने का कभी प्रयास ही नहीं किया। संगीत सब वही गा रहे थे, फिर भी अपनी-अपनी ढपली और अपना-अपना राग था, जो सब मिलकर इतना बेसुरा हो गया था कि सामान्य एवं विद्वत-जन संगीत के उस सम-स्वर की मधुरता का रसास्वादन नहीं कर सके। कृष्ण, बुद्ध और महावीर आदि महापुरुषों एवं भारतीय ऋषि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003608
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages568
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy