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भारतीय आचार - दर्शन : एक तुलनात्मक अध्ययन
लेकिन, इसका अर्थ यह नहीं है कि बुद्ध मानवीय प्रज्ञा को श्रद्धा से पूर्णतया निर्मुक्त कर देते हैं । बुद्ध की दृष्टि में ज्ञानविहीन श्रद्धा मनुष्य के स्वविवेकरूपी चक्षु को समाप्त कर उसे अन्धा बना देती है और श्रद्धा-विहीन ज्ञान मनुष्य को संशय और तर्क के मरूस्थल में भटका देता है। इस मानवीय-प्रकृति का विश्लेषण करते हुए विसुद्धिमग्ग में कहा है कि बलवान् श्रद्धावाला, किन्तु मन्द प्रज्ञावाला व्यक्ति बिना सोचे-समझे हर कहीं विश्वास कर लेता है और बलवान् प्रज्ञावाला, किन्तु मन्द श्रद्धावाला व्यक्ति कुतार्किक (धूर्त्त) हो जाता है, वह औषधि से उत्पन्न होने वाले रोग के समान ही असाध्य होता है। 20 इस प्रकार, बुद्ध श्रद्धा और विवेक के मध्य एक समन्वयवादी दृष्टिकोण प्रस्तुत करते हैं । उनकी दृष्टि में ज्ञान से युक्त श्रद्धा और श्रद्धा से युक्त ज्ञान ही साधना के क्षेत्र में सच्चे दिशा-निर्देशक हो सकते हैं।
गीता में श्रद्धा और ज्ञान का सम्बन्ध - गीता के अनुसार श्रद्धा को ही प्रथम स्थान देना होगा, गीताकार कहता है कि श्रद्धावान् ही ज्ञान प्राप्त करता है। 21 यद्यपि गीता में ज्ञान की महिमा गायी गई है, लेकिन ज्ञान श्रद्धा के ऊपर अपना स्थान नहीं बना पाया है, वह श्रद्धा
प्राप्ति का एक साधन ही है। श्रीकृष्ण स्वयं कहते हैं कि निरन्तर मेरे ध्यान में लीन और प्रीतिपूर्वक भजने वाले लोगों को मैं बुद्धियोग प्रदान करता हूँ, जिससे वे मुझे प्राप्त हो जाते
22 यहाँ ज्ञान को श्रद्धा का परिणाम माना गया है। इस प्रकार, गीता यह स्वीकार करती है कि यदि साधक मात्र श्रद्धा या भक्ति का सम्बल लेकर साधना के क्षेत्र में आगे बढ़े, तो ज्ञान उसे ईश्वरीय- अनुकम्पा के रूप में प्राप्त हो जाता है। कृष्ण कहते हैं कि श्रद्धायुक्त भक्तजनों पर अनुग्रह करने के लिए मैं स्वयं उनके अन्तःकरण में स्थित होकर अज्ञानजन्य अन्धकार को ज्ञानरूपी प्रकाश से नष्ट कर देता हूँ। 23 इस प्रकार, गीता में ज्ञान के स्थान पर साधना की दृष्टि से श्रद्धा ही प्राथमिक सिद्ध होती है।
लेकिन, जैन- विचारणा में यह स्थिति नहीं है । यद्यपि उसमें श्रद्धा का काफी माहात्म्य निरूपित है और कभी तो वह गीता के अति निकट आकर यह भी कह देती है कि दर्शन (श्रद्धा) की विशुद्धि से ज्ञान की विशुद्धि हो ही जाती है, अर्थात् श्रद्धा के सम्यक् होने पर सम्यक् ज्ञान उपलब्ध हो ही जाता है, फिर भी उसमें श्रद्धा ज्ञान और स्वानुभव के ऊपर प्रतिष्ठित नहीं हो सकती। इसके पीछे जो कारण है, वह यह कि गीता में श्रद्धेय इतना समर्थ माना गया है कि वह अपने उपासक के हृदय में ज्ञान की आभा को प्रकाशित कर सकता है, जबकि जैन- विचारणा में श्रद्धेय (उपास्य) उपासक को अपनी ओर से कुछ भी देने में असमर्थ है, साधक को स्वयं ही ज्ञान उपलब्ध करना होता है।
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सम्यग्दर्शन और सम्यक् चारित्र का पूर्वापर सम्बन्ध - चारित्र और ज्ञान-दर्शन पूर्वापर सम्बन्ध को लेकर जैन- विचारणा में कोई विवाद नहीं है । चारित्र की अपेक्षा ज्ञान और दर्शन को प्राथमिकता प्रदान की गई है। चारित्र साधना-मार्ग में गति है, जब ज्ञान साधना पथ का बोध है और दर्शन यह विश्वास जाग्रत करता है कि यह पथ उसे अपने लक्ष्य
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