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________________ 530 भारतीय आचार-दर्शन : एक तुलनात्मक अध्ययन को प्राप्त हो गई है। इसे स्वरूपावस्थान भी कहा गया है, क्योंकि यहाँ साधक विषयों का चिन्तन छोड़कर स्वरूप में स्थित हो जाता है। इस अवस्था को जैनधर्म के तेरहवें और चौदहवें गुणस्थान के समान माना जा सकता है। जैन-योगपरम्परा में आध्यात्मिक-विकास योग-परम्परा से प्रभावित होकर जैन-परम्परा में भी आचार्य हरिभद्र ने आध्यात्मिक-विकास की भूमियों की चर्चा की है। जिस प्रकार योग-परम्परा में योग के आठ अंग माने गए हैं, उसी प्रकार आचार्य हरिभद्र ने योगदृष्टिसमुच्चय में आठ दृष्टियों का विधान किया है, जो इस प्रकार हैं - 1. मित्रा, 2. तारा, 3. बला, 4. दीप्रा, 5. स्थिरा, 6. कान्ता, 7. प्रभा और 8. परा। इन आठ दृष्टियों में चार दृष्टियाँ प्रतिपाती और चार दृष्टियाँ अप्रतिपाती हैं। प्रथम चार दृष्टियों से पतन की संभावना बनी रहती है, इसलिए उन्हें प्रतिपाती कहा गया है, जबकि अन्तिम चार दृष्टियों से पतन की संभावना नहीं होती, अतः वे अप्रतिपाती कही जाती हैं। योग के आठ अंगों से इन दृष्टियों की तुलना इस प्रकार की जा सकती है - 1. मित्रादृष्टि और यम- मित्रादृष्टि योग के प्रथम अंग यम के समकक्ष हैं। इस अवस्था में अहिंसा आदि पाँच महाव्रतों अथवा पाँच यमों का पालन होता है। इस दृष्टि में स्थित व्यक्ति शुभ कार्यों के सम्पादन में रुचि रखता है और अशुभ कार्य करनेवालों के प्रति अद्वेषवृत्ति रखता है। इस अवस्था में आत्मबोध तृण की अग्नि के समान स्थाई नहीं होता है। 2. तारादृष्टि और नियम-तारादृष्टि योग के द्वितीय अंग नियम के समान है। इसमें शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय आदि नियमों का पालन होता है। जिस प्रकार मित्रादृष्टि में शुभ कार्यों के प्रति अद्वेष-गुण होता है, उसी प्रकार तारादृष्टि में जिज्ञासा-गुण होता है, व्यक्ति में तत्त्वज्ञान के प्रति जिज्ञासा बलवती होती है। ___3. बलादृष्टि और आसन - इस दृष्टि में स्थित व्यक्ति की तृष्णा शांत हो जाती है और स्वभाव या मनोवृत्ति में स्थिरता होती है। इस अवस्था की तुलना आसन नामक तृतीय योगगंगा से की जा सकती है, क्योंकि इसमें शारीरिक, वाचिक और मानसिक-स्थिरता पर जोर दिया जाता है। इस अवस्थाका प्रमुख गुण शुश्रूषाअर्थात् श्रवणेच्छा माना गया है। इस अवस्था में प्रारम्भ किए गए शुभ कार्य निर्विघ्न पूरे होते हैं। इस अवस्था में प्राप्त होने वाला तत्त्वबोध काष्ठ की अग्नि के समान कुछ स्थाई होता है। 4. दीप्रादृष्टि और प्राणायाम-दीप्रादृष्टि योग के चतुर्थ अंग प्राणायाम के समान है। जिस प्रकार प्राणायाम में रेचक, पूरक एवं कुंभक-ये तीन अवस्थाएँ होती हैं, उसी प्रकार बाह्य भावनियंत्रणरूप रेचक, आन्तरिक भावनियंत्रणरूप पूरक एवं मनोभावों की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003608
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages568
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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