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________________ भारतीय आचार-दर्शन : एक तुलनात्मक अध्ययन कर्मों की अविप्रणाशव्यवस्था, अर्थात् यह ज्ञान कि प्रत्येक कर्म का भोग अनिवार्य है, कर्म अपना फल दिए बिना नष्ट नहीं होता । बोधिसत्व इस भूमि में शील- पारमिता का अभ्यास करता है। वह अपने शील को विशुद्ध करता है, सूक्ष्म से सूक्ष्म अपराध भी नहीं करता । पूर्ण शीलविशुद्धि की अवस्था में वह अग्रिम विमला विहार-भूमि में प्रविष्ट हो जाता है । 3. विमला - इस अवस्था में बोधिसत्व (साधक) अनैतिक- आचरण से पूर्णतया मुक्त होता है। दुःखशीलता के मनोविकार का मल पूर्णतया नष्ट हो जाता है, इसलिए इसे विमला कहते हैं। यह आचरण की पूर्ण शुद्धि की अवस्था है । इस भूमि में बोधिसत्व शान्तिपारमिता का अभ्यास करता है। यह अधिचित्त शिक्षा है। इस भूमि का लक्षण है- ध्यानप्राप्ति; इसमें अच्युत समाधि का लाभ होता है। जैन- विचारणा में इस भूमि की तुलना अप्रमत्तसंयत-गुणस्थान नामक सप्तम गुणस्थान से की जा सकती है। - 4. प्रभाकरी - इस भूमि में अवस्थित साधक को समाधिबल से अप्रमाण धर्मों का अवभास या साक्षात्कार प्राप्त होता है एवं साधक बोधिपाक्षीय धर्मों की परिणामना लोकहित के लिए संसार में करता है, अर्थात् वह बुद्ध का ज्ञानरूपी प्रकाश लोक में फैलाता है, इसलिए भूमि को प्रभारी कहा जाता है। यह भी जैनों के अप्रमत्तसंयत नामक सातवें गुणस्थान के समकक्ष है। 516 5. अर्चिष्मती - इस भूमि में क्लेशावरण और ज्ञेयावरण का दाह होता है । आध्यात्मिक-विकास की यह भूमि अपूर्वकरण नामक आठवें गुणस्थान से तुलनीय है, क्योंकि जिस प्रकार इस भूमि में साधक क्लेशावरण और ज्ञेयावरण का दाह करता है, उसी प्रकार आठवें गुणस्थान में भी साधक ज्ञानावरणीय आदि आठ कर्मों का रसघात एवं संक्रमण करता है, इसमें साधक वीर्य पारमिता का अभ्यास करता है। 6. सुदुर्जया - इस भूमि में सत्त्वपरिपाक, अर्थात् प्राणियों के धार्मिक भावों को परिपुष्ट करते हुए एवं स्वचित्त की रक्षा करते हुए दुःख पर विजय प्राप्त की जाती है। यह कार्य अति दुष्कर होने से इस भूमि को 'दुर्जया' कहते हैं। इस भूमि में प्रतीत्यसमुत्पाद के साक्षात्कार के कारण भवापत्ति (उर्ध्वलोकों में उत्पत्ति) विषयक संक्लेशों से अनुरक्षण हो जाता है। बोधिसत्व इस भूमि में ध्यान - पारमिता का अभ्यास करता है। इस भूमि की तुलना आठवें से ग्यारहवें गुणस्थान तक की अवस्था से की जा सकती है। जैन और बौद्ध- दोनों विचारणाओं के अनुसार, साधना के विकास की यह अवस्था अत्यन्त ही दुष्कर होती है । 7. अभिमुखी - प्रज्ञापारमिता के आश्रय से बोधिसत्व (साधक) संसार और निर्वाण- दोनों के प्रति अभिमुख होता है । यथार्थ प्रज्ञा के उदय से उसके लिए संसार और निर्वाण में अन्तर नहीं होता। अब संसार उसके लिए बन्धन नहीं रहता । निर्वाण के अभिमुख Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003608
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages568
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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