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आध्यात्मिक एवं नैतिक-विकास
रहा है। बौद्ध-विचारधारा के अनुसार, जब साधक निम्न तीन संयोजनों (बंधनों ) का क्षय कर देता है, तब वह इस अवस्था को प्राप्त करता है - 1. सत्कायदृष्टि - देहात्मबुद्धि, अर्थात् शरीर को आत्मा मानना, उसके प्रति ममत्व या मेरापन रखना (स्वकाये दृष्टिः- चन्द्रकीर्त्ति) (2) विचिकित्सा – सन्देहात्मकता तथा (3) शीलव्रत - परामर्श - अर्थात् व्रत, उपवास आदि में आसक्ति । दूसरे शब्दों में, मात्र कर्मकाण्ड के प्रति रुचि । इस प्रकार, जब साधक दार्शनिक-मिथ्यादृष्टिकोण (सत्कायदृष्टि) एवं कर्मकाण्डात्मक-मिथ्यादृष्टिकोण (शीलव्रतपरामर्श) का त्याग कर सर्व प्रकार के संशयों (विचिकित्सा) की अवस्था को पार कर जाता है, तब वह इस स्रोतापन्न - भूमि पर आरूढ़ हो जाता है। दार्शनिक एवं कर्मकाण्डात्मक मिथ्या दृष्टिकोणों एवं सन्देहशीलता के समाप्त हो जाने के कारण इस भूमि से पतन की सम्भावना नहीं रहती है और साधक निर्वाण की दिशा में अभिमुख हो आध्यात्मिक-दिशा करता है । स्रोतापन्न साधक निम्न चार अंगों से सम्पन्न होता है -
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1. बुद्धानुस्मृति - बुद्ध में निर्मल श्रद्धा से युक्त होता है ।
2. धर्मानुस्मृति - धर्म में निर्मल श्रद्धा से युक्त होता है।
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3. संघानुस्मृति - संघ में निर्मल श्रद्धा से युक्त होता है । 4. शील एवं समाधि से युक्त होता है ।
स्रोतापन्न-अवस्था को प्राप्त साधक विचार (दृष्टिकोण) एवं आचार - दोनों से शुद्ध होता है। जो साधक इस स्रोतापन्न अवस्था को प्राप्त कर लेता है, वह अधिक से अधिक सात जन्मों में निर्वाण - लाभ कर ही लेता है ।
जैन- विचारधारा के अनुसार, क्षायिक – सम्यक्त्व से युक्त चतुर्थ सम्यक दृष्टिगुणस्थान से सातवें अप्रमत्तसंयत - गुणस्थान तक की जो अवस्थाएँ हैं, उनकी तुलना स्रोतापन्नअवस्था से की जा सकती है, क्योंकि जैन- विचारधारा के अनुसार भी इन अवस्थाओं में साधक दर्शन (दृष्टिकोण) विशुद्धि एवं चारित्र ( आचार) विशुद्धि से युक्त होता है । इन अवस्थाओं में सातवें गुणस्थान तक वासनाओं का प्रकटन तो समाप्त हो जाता है, लेकिन उनके बीज (राग-द्वेष एवं मोह) सूक्ष्म रूप में बने रहते हैं, अर्थात् कषायों के तीनों चौक समाप्त होकर मात्र संज्वलन - चौक शेष रहता है। जैन - परम्परा की इसी बात को बौद्धपरम्परा यह कहकर प्रकट करती है कि स्रोतापन्न अवस्था में कामधातु ( वासनाएँ) तो समाप्त हो जाती है, लेकिन रूपधातु (आस्रव अर्थात् राग-द्वेष एवं मोह) शेष रहती हैं । 2. सकृदागामी - भूमि - इस भूमि में साधक का मुख्य लक्ष्य 'आस्रव - क्षय' ही होता है। सकृदागामी भूमि के अन्तिम चरण में साधक पूर्ण रूप से कामराग (वासनाएँ) और प्रतिध (द्वेष) को समाप्त कर देता है और अनागामी भूमि की दिशा में आगे बढ़ जाता है।
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