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आध्यात्मिक एवं नैतिक-विकास
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अवस्था है। इस अवस्था में स्थित व्यक्ति को जैनदर्शन में अर्हत्, सर्वज्ञ एवं केवली कहा जाता है। यह वेदान्त के अनुसार जीवन्मुक्ति या सदेह-मुक्ति की अवस्था है। 14. अयोगीकेवली-गुणस्थान
सयोगीकेवली-गुणस्थान में यद्यपि आत्मा आध्यात्मिक-पूर्णताको प्राप्त कर लेती है, फिर भी आत्मा का शरीर के साथ सम्बन्ध बना रहने से शारीरिक-उपाधियाँ तो लगी रहती हैं। प्रश्न होता है कि इन शारीरिक-उपाधियों को समाप्त करने का प्रयास क्यों नहीं किया जाता ? इसका एक उत्तर यह है कि बारहवें गुणस्थान में साधक की सारी इच्छाएँ समाप्त हो जाती हैं, उसमें न जीने की कामना होती है, न मृत्यु की। वह शारीरिक-उपाधियों को नष्ट करने का भी कोई प्रयास नहीं करता। दूसरे, साधना के द्वारा उन्हीं कर्मों का क्षय हो सकता है, जो उदय में नहीं आए हैं, अर्थात् जिनका फल-विपाक प्रारम्भ नहीं हुआहै। जिन कर्मों का फलभोग प्रारम्भ हो जाता है, उनको फलभोग की मध्यावस्था में परिवर्तित या क्षीण नहीं किया जा सकता। वेदान्तिक-विचारणा में भी यह तथ्य स्वीकृत है। लोकमान्य तिलक लिखते हैं - 'जिन कर्म-फलों का उपभोग आरम्भ होने से यह शरीर एवं जन्म मिला, उनके भोगे बिना छुटकारा नहीं है - प्रारब्धकर्मणा भोगादेव क्षयः।' नाम (शरीर), गोत्र एवं आयुष्य-कर्म का विपाक साधक के जन्म से ही प्रारम्भ हो जाता है, साथ ही शरीर की उपस्थिति तक शारीरिक-अनुभूतियों (वेदनीय) का भी होना आवश्यक है, अतः पुरुषार्थ एवं साधना के द्वारा इनमें कोई परिवर्तन करना सम्भव नहीं। यही कारण है कि जीवन्मुक्त भी शारीरिक-उपाधियों का निष्काम भाव से उनकी उपस्थिति तक भोग करता रहता है, लेकिन जब वह इन शारीरिक-उपाधियों की समाप्ति को निकट देखता है, तो शेष कर्मावरणों को समाप्त करने के लिए यदि आवश्यक हो, तो प्रथम केवली-समुद्घात करता है और तत्पश्चात् सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति-शुक्लध्यान के द्वारा मानसिक, वाचिक एवं कायिकव्यापारों का निरोध कर लेता है तथा समुच्छिन्नक्रियाप्रतिपाति-शुक्लध्यान द्वारा निष्प्रकम्पस्थिति को प्राप्त करके शरीर त्यागकर निरुपाधि-सिद्धि या मुक्ति प्राप्त कर लेता है। इस गुणस्थान का स्थितिकाल अत्यन्त अल्प होता है। जितना समय पाँच हस्व स्वरों अ, इ, उ, ऋ, ल को मध्यम स्वर से उच्चारित करने में लगता है, उतने ही समय तक इस गुणस्थान में आत्मारहती है। यह गुणस्थान अयोगीकेवली-गुणस्थान कहा जाता है, इसका अर्थ यह है कि इस अवस्था में समग्र कायिक, वाचिक और मानसिक-व्यापार, अर्थात् योग का पूर्णतः निरोध हो जाता है। वह योग संन्यास है, यही सर्वांगीण पूर्णता है, चरम आदर्श की उपलब्धि है। बाद की जो अवस्था है, उसे जैन-विचारकों ने मोक्ष, निर्वाण, शिवपद एवं निर्गुणब्रह्मस्थिति कहा है।
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